आलोक मेहता का ब्लॉग: केंद्र के खिलाफ राज्यों की मनमानी खतरे की घंटी

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 8, 2019 03:00 PM2019-12-08T15:00:47+5:302019-12-08T15:00:47+5:30

राज्य सरकारों का एक तर्क यह होता है कि उन्हें कई क्षेत्नों में निर्णय की स्वायत्तता का अधिकार है. जमीन, शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था आदि अनेक मामलों में उन्हें यह अधिकार है.

Alok Mehta's blog: State's arbitrary threat bells against the Center | आलोक मेहता का ब्लॉग: केंद्र के खिलाफ राज्यों की मनमानी खतरे की घंटी

आलोक मेहता का ब्लॉग: केंद्र के खिलाफ राज्यों की मनमानी खतरे की घंटी

Highlightsगु जरात सरकार ने इसी वर्ष संसद द्वारा बनाए गए मोटर वाहन कानून को ताक पर रखकर फैसला किया कि दोपहिया वाहन चालकों के लिए हेलमेट की अनिवार्यता नहीं रहेगी. गुजरात में भाजपा की ही सरकार है.

गु जरात सरकार ने इसी वर्ष संसद द्वारा बनाए गए मोटर वाहन कानून को ताक पर रखकर फैसला किया कि दोपहिया वाहन चालकों के लिए हेलमेट की अनिवार्यता नहीं रहेगी. गुजरात में भाजपा की ही सरकार है. केंद्र सरकार के वरिष्ठ मंत्नी नितिन गडकरी ने लगभग चार-पांच वर्ष निरंतर अभियान चलाकर देश में सड़क दुर्घटनाओं से मौत को अधिकाधिक रोकने के लिए मोटर कानून में बदलाव करवाया और स्वयं अपनी आवाज में रिकॉर्ड कर हेलमेट पहनने, मोटर नियम कानून के पालन का प्रचार किया. संसद में गुजरात के सांसदों ने भी नया कानून पास करने के लिए बाकायदा वोट दिया. फिर गुजरात सरकार द्वारा क्या केवल जुर्माने की राशि अधिक होने के नाम पर कुछ अराजक तत्वों के दबाव में राष्ट्रीय कानून को फाड़कर कूड़े में फेंकने का निर्णय करना उचित है?

जिम्मेदार भाजपा सरकार सामने रखे गए इन अधिकृत तथ्यों को भी कैसे मिटा सकती है कि एक वर्ष में सड़क दुर्घटनाओं में मरने वाले 48746 दुपहिया चालकों में 73.8 प्रतिशत बिना हेलमेट पहने व्यक्ति थे. मतलब दुर्घटनाग्रस्त हर चौथा मृतक बिना हेलमेट वाला था. गुजरात में भी यह संख्या 60 प्रतिशत है. गुजरात सरकार के अपने रिकॉर्ड के अनुसार प्रदेश में 2016 से 2018 के बीच ऐसे मरने वालों की संख्या में 26 गुना वृद्धि हुई है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि हेलमेट के उपयोग से हर दस में से चार की जान बच सकती है. इस तरह आप हर साल पंद्रह हजार लोगों की जान बचा सकते हैं.

राज्य सरकारों का एक तर्क यह होता है कि उन्हें कई क्षेत्नों में निर्णय की स्वायत्तता का अधिकार है. जमीन, शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था आदि अनेक मामलों में उन्हें यह अधिकार है. लेकिन हाल के वर्षो में गुजरात ही नहीं कई राज्य स्वायत्तता के नाम पर मनमानी करने लगे हैं. कई राज्यों में असामाजिक, अतिवादी समूह-संगठन भी सक्रिय रहते हैं. उनके दबाव में क्या राष्ट्रीय कानूनों और व्यापक हितों को किनारे किया जा सकता है? मोटर कानून को लागू करने से रोकने के लिए कई स्वार्थी तत्व भी सक्रि य रहे हैं. यही कारण है कि कुछ राज्य सरकारें लोगों की जान को महत्व न देते हुए राजनीतिक दृष्टिकोण से कानून को लागू करने में ढिलाई दिखा रही हैं. अब संसद में पेश हो रहे नागरिकता कानून  संशोधन विधेयक के पारित होने से पहले ही प. बंगाल की मुख्यमंत्नी ममता बनर्जी ने घोषणा कर दी है कि केंद्र और संसद के निर्णय के बावजूद वह प्रदेश में इस कानून पर अमल नहीं होने देंगी.

यह समाज के एक वर्ग को प्रभावित करने की राजनीति हो सकती है, लेकिन राष्ट्रीय आयुष्मान स्वास्थ्य योजना को लागू करने से बंगाल, दिल्ली जैसी राज्य सरकारों ने इंकार कर दिया, जबकि यह विश्व की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना है. असलियत तो यह है कि जन कल्याणकारी योजना से सामान्य गरीब आदमी लाभ देने वाले स्थानीय नेता, सरकार और पार्टी को ही उपकारी मानता है. कांग्रेस गठबंधन की सरकार की कुछ ऐसी योजनाओं के सही क्रियान्वयन का लाभ भाजपा या अन्य प्रदेशों के सत्तारूढ़ दलों ने उठाया था.

दिल्ली के मुख्यमंत्नी अरविंद केजरीवाल पिछले पांच वर्षो में केंद्र सरकार और उपराज्यपाल के विरुद्ध मुहिम चलाते रहे हैं. उनकी एक बड़ी मांग दिल्ली की पुलिस को भी उनके अधीन करने की रही है. अब तक का अनुभव यह आशंका या संभावना पैदा करता है कि यदि पुलिस उनके अधिकार में हो तो वह किसी मंत्नी, प्रधानमंत्नी या विदेशी मेहमान के रास्ते बंद करने या उन्हें ही हिरासत में लेने के आदेश भी दे सकते हैं. इसी तरह बंगाल में ममता बनर्जी अपने पुलिस अधिकारियों के साथ केंद्रीय जांच ब्यूरो के अधिकारियों को ही हिरासत में लेने और पुलिस कमिश्नर के समर्थन में धरने पर बैठने जैसे गैर संवैधानिक काम कर चुकी हैं. ताजा मामला तो पराकाष्ठा है, जब प्रदेश के राज्यपाल जगदीप धनखड़ के विधानसभा में प्रवेश करने का रास्ता ही बंद करवा दिया और उनके आने से पहले विधानसभा सचिवालय के कर्मचारियों को भी घर पर बैठा दिया. संवैधानिक रूप से राज्यपाल विधानसभा और सरकार का संरक्षक होता है. वह अपने प्रदेश का नाम भी बदलने के लिए प्रयास कर रही हैं. गनीमत है इस तरह के निर्णयों के लिए केंद्र की अनुमति की आवश्यकता होती है. अन्यथा कई राज्य सरकारें प्रदेश के नाम बदलकर अथवा मनमाने तरीके से पुलिस का दुरुपयोग अराजकता पैदा करने के लिए कर सकती हैं.

आजादी के 72 वर्षो के बाद संविधान में कई संशोधन हुए हैं. केंद्र-राज्य सरकारों के संबंधों पर सरकारिया आयोग की सिफारिशें भी कुछ हद तक पुरानी हो चुकी हैं. इसलिए आधुनिक भारत में केंद्र-राज्य संबंधों के वर्तमान नियम कानूनों पर पुनर्विचार के लिए नए आयोग और संसद में गंभीरता से विचार की जरूरत है. यही नहीं, केंद्र-राज्य सरकारों के विवादों पर ऊंची अदालतों का भी बहुत समय और जनता की कमाई से भरे खजाने से बहुत खर्च होता है. अदालतें फैसला कर देती हैं, तब भी अमल की जिम्मेदारी तो राज्य सरकार और स्थानीय संस्थाओं की होती है. इसलिए जनता के व्यापक हितों और भारत के उज्ज्वल भविष्य के लिए सही नियम कानून बनाकर उनका पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिए.  

Web Title: Alok Mehta's blog: State's arbitrary threat bells against the Center

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