आलोक मेहता का ब्लॉग: संकट की घड़ी में मीडिया की साख का सवाल

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: March 14, 2020 06:07 AM2020-03-14T06:07:43+5:302020-03-14T06:07:43+5:30

आजकल भारत के संदर्भ में राजनीतिक या आर्थिक मामलों पर खबरों तथा टिप्पणियों पर बीबीसी, गार्जियन, न्यूयॉर्क टाइम्स, सीएनएन, इकोनॉमिस्ट इत्यादि की बड़ी चर्चा हो रही है. निश्चित रूप से वे अपने नजरिये और देश के हितों के लिए काम करते होंगे. फिर भी हमारे महारथियों को यह भी देखना चाहिए कि ब्रिटिश प्रधानमंत्नी या अमेरिकी राष्ट्रपति अपने ही मीडिया को अविश्वसनीय बताकर सार्वजनिक रूप से कितना अपमानित करते हैं.

Alok Mehta blog: Question of the credibility of the media in times of crisis | आलोक मेहता का ब्लॉग: संकट की घड़ी में मीडिया की साख का सवाल

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)

कोरोना वायरस हो या सांप्रदायिक उपद्रव, सत्ता की मारामारी हो या आर्थिक घोटाले - मीडिया की साख पर सवाल उठने लगते हैं. कोरोना के विश्व संकट के दौरान भारतीय मीडिया - प्रिंट, टी.वी. समाचार चैनल, डिजिटल चैनल ने जिम्मेदारी के साथ जागरूकता लाने तथा महामारी को फैलने से रोकने में क्या महत्वपूर्ण योगदान नहीं दिया है? कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन अधिकांश भारतीय मीडिया पश्चिम के मीडिया से अधिक सक्रिय और सहायक रहा है.

महत्वपूर्ण बात यह है कि वायरस संकट के दौर में संपन्न पश्चिमी देशों का मीडिया ही नहीं सरकारें अधिक नाकारा तथा विफल सिद्ध हो रही हैं. ताजा प्रमाण गुरुवार को ब्रिटेन के प्रधानमंत्नी बोरिस जॉनसन का प्रेस वक्तव्य देख सकते हैं, जिसमें 500 से अधिक लोगों के संक्रमित होने के बावजूद वह यह भी सूचित कर गए कि ‘‘अभी तो शुरुआत है, असली प्रकोप मई महीने तक दिखेगा तब हम और कदम उठाएंगे. फिलहाल स्कूल भी बंद नहीं करेंगे क्योंकि बच्चे खेलेंगे या बुजुर्ग दादा-दादी, नाना-नानी के पास रहकर संक्रमित होंगे या उन्हें करेंगे. बस सावधानी के लिए हाथ बार-बार धोते रहिए.’’

आजकल भारत के संदर्भ में राजनीतिक या आर्थिक मामलों पर खबरों तथा टिप्पणियों पर बीबीसी, गार्जियन, न्यूयॉर्क टाइम्स, सीएनएन, इकोनॉमिस्ट इत्यादि की बड़ी चर्चा हो रही है. निश्चित रूप से वे अपने नजरिये और देश के हितों के लिए काम करते होंगे. फिर भी हमारे महारथियों को यह भी देखना चाहिए कि ब्रिटिश प्रधानमंत्नी या अमेरिकी राष्ट्रपति अपने ही मीडिया को अविश्वसनीय बताकर सार्वजनिक रूप से कितना अपमानित करते हैं.

आपातकाल में सेंसर के कारण राजनीतिक खबरों के लिए हमारे लोगों का  पश्चिम के मीडिया पर मजबूरी में निर्भर होना स्वाभाविक था लेकिन आज तो अधिकांश भारतीय मीडिया प्रिंट, टी.वी. समाचार चैनल  दुनिया के किसी भी देश से अधिक स्वतंत्न, निर्भीक और विशाल है. बाकी कसर कई नामी पत्नकारों, सामाजिक संगठनों के वेब पोर्टल , यू ट्यूब चैनल्स से पूरी हो रही है. प्रदेशों के कई भाषाई अखबार या टी.वी. पत्नकार समाज की समस्याओं, स्वास्थ्य, आर्थिक विषयों पर श्रेष्ठतम सामग्री दे रहे हैं. फिर पश्चिम के मीडिया पर हम मोहित क्यों हो रहे हैं.

संभव है राजनेताओं को विदेश में अपनी छवि बनाने या दूसरे की बिगाड़ने में रुचि रहती हो, लेकिन समझदार विश्लेषकों को असली तथ्यों की जानकारी रहनी चाहिए. हाल के वर्षो में अमेरिका और ब्रिटेन के सरकारी गोपनीय दस्तावेज डिक्लासिफाइड होने से यह तथ्य उजागर हो चुका है कि अमेरिकी गुप्तचर संगठन सीआईए और ब्रिटिश जासूसी संस्था एमआई-6 न्यूयॉर्क टाइम्स, गार्जियन, बीबीसी के पत्नकारों, प्रबंधकों, मालिकों का इस्तेमाल करते रहे हैं.

सबसे अधिक चौंकाने वाला तथ्य यह भी सामने आया कि कुछ वर्ष पहले बीबीसी में बड़े पैमाने पर भर्ती की जिम्मेदारी ही जासूसी संगठन एमआई-6 के वरिष्ठ अधिकारियों को दे दी गई थी. अब आप समझ सकते हैं कि क्या उन अधिकारियों ने अपने काम के लिए अनुकूल लोग भी भर्ती नहीं कराए होंगे. इसी तरह जासूसी संगठन से सेवामुक्त होकर पत्नकार बनकर विदेशों में पहुंचने वाले कई जासूसों ने अपने ढंग से रिपोर्टिग करने के साथ अपनी एजेंसी को भी गोपनीय सूचनाएं भेजने का काम किया है.

सीआईए के ही रिकॉर्ड का दस्तावेज साबित करता है कि संगठन ने 25 वर्षो के दौरान करीब 400 पत्नकारों का उपयोग जासूसी के लिए करवाया. वाटरगेट कांड को उजागर करने वाले एक पत्नकार कार्ल बर्नस्टीन ने स्वयं यह तथ्य लिखा भी था. दूसरी तरफ सीआईए के एक बड़े अधिकारी ने स्वयं वॉशिंगटन पोस्ट के मालिक फिलिप ग्राहम से कहा था कि हमें जासूसी के लिए कॉल गर्ल से कम खर्च पर पत्नकार मिल जाते हैं.

सीआईए के दस्तावेज के अनुसार संगठन ने प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय न्यूज एजेंसियों को नियमित रूप से फंडिंग कर अपने ढंग से पत्नकारों से सूचनाएं लेने, गलत खबरें फैलाकर गड़बड़ियां कराने में कभी संकोच नहीं किया. यहां तक कि मित्न यूरोपीय देशों में भी राजनीतिक उठापटक में पत्नकारों का उपयोग किया गया.

वैसे रूस और चीन के जासूसी संगठन भी पत्नकारों के वेश में जासूस भेजते रहे या स्थानीय लोगों को मोहरा बनाकर उपयोग करते रहे. सत्तर के दशक में भारत के दो बड़े संस्थानों के पत्नकारों के सीआईए एजेंट की तरह काम करने की जानकारी भारतीय गुप्तचर संस्था रॉ को मिली, तब उनसे लाल किले के गुप्त तहखाने में लंबी पूछताछ हुई. एक तो कुछ समय बाद अमेरिकी संपर्को के बल पर भारत से निकलकर वहीं बस गया और एक स्वयं अधिकाधिक जानकारी देकर अपने राजनीतिक-प्रशासनिक संपर्को से जेल जाने से बच गया.

इस पृष्ठभूमि को देखते हुए जम्मू-कश्मीर की स्थिति, अनुच्छेद 370 की समाप्ति के कानून, सीएए या भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था पर पश्चिम के पूर्वाग्रहों वाली सूचनाओं तथा टिप्पणियों को अनावश्यक तरजीह क्यों दी जानी चाहिए? उदार लोकतंत्न में सूचना-समाचार तंत्न के सारे दरवाजे खिड़कियां खुली रखते हुए भी स्वदेशी मीडिया पर अधिक भरोसा कर दुष्प्रचार के वायरस से भी लोगों को बचाना चाहिए.

Web Title: Alok Mehta blog: Question of the credibility of the media in times of crisis

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे