आलोक मेहता का ब्लॉग: संजीवनी के पहाड़ पर विजय पताका की उम्मीद
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: April 12, 2020 05:38 IST2020-04-12T05:38:43+5:302020-04-12T05:38:43+5:30
अहंकारी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को सार्वजनिक रूप से भारत का एहसान मानकर धन्यवाद देना पड़ा. वह भी उस कुनैन (हाइड्रोक्लोरोक्वीन) की अधिकाधिक सप्लाई के लिए, जिसे बचपन में हमें मलेरिया बुखार में खाने को दी जाती थी और बहुत सस्ती या सरकारी विभाग से मुफ्त में दी जाती थी.

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)
सचमुच भारत ही नहीं दुनिया बदल गई. लगभग 35 साल पहले अक्तूबर 1985 में मैंने अपने दिल्ली के अखबार में दवाइयों के अंतर्राष्ट्रीय धंधे और भारत की दयनीय दशा, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट पर दो-तीन किस्तों में खोजपरक विशेष खबरें लिखी थीं जो आज भी फाइलों में संजोई रखी हैं. इनमें यह तथ्य उजागर किया गया था कि देश में करीब 425 दवाई निर्माता कंपनियां बिना लाइसेंस मनमाने ढंग से दवाइयां बनाकर बेच रही हैं और इनमें 29 बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी हैं. ये
कंपनियां करीब 250 करोड़ की दवाइयां आयात करके भारत को नुकसान भी पहुंचा रही हैं. कई ऐसी दवाइयां भी बेच रही हैं, जिन्हें अमेरिका और यूरोपीय देशों ने प्रतिबंधित कर रखा है. मामला संसद में उठा. युवा प्रधानमंत्नी राजीव गांधी ने अपने मित्न सांसद विश्वजीत सिंह को विस्तार से रिपोर्ट तैयार करने को कहा. विश्वजीत सिंह ने कई सप्ताह अध्ययन और विभिन्न क्षेत्नों के वरिष्ठ लोगों से जानकारियां इकट्ठी कर करीब दो सौ पेज की रिपोर्ट सरकार को दी.
उसमें भी यह बात प्रमुखता से आई कि शीर्ष अधिकारियों और कुछ नेताओं के स्वार्थो एवं भ्रष्टाचार के कारण भारतीय हितों को क्षति पहुंच रही है. लेकिन जैसा सरकार में होता है, रिपोर्ट पर महीनों सलाह मशविरे के बाद कुछ कदम उठाए गए. हां विदेश से दवाई निर्माण के कच्चे माल (बल्क ड्रग्स) के घोटाले के प्रमाण मिल जाने से राजीव गांधी ने प्रभावशाली वरिष्ठ मंत्नी वीरेंद्र पाटिल को मंत्रिमंडल से निकाल दिया.
यह कथा इसलिए याद आई और अपने पाठकों के लिए लिखना पड़ा, क्योंकि इस समय अमेरिका, ब्राजील ही नहीं ब्रिटेन और यूरोपीय देश, अफ्रीकी देश, खाड़ी के देश दवाइयों के लिए बहुत हद तक भारत पर निर्भर रहने लगे हैं. चीन भी सबसे बड़ा निर्यातक देश है, लेकिन उस पर भरोसा कम हो रहा है. कोरोना संक्रमण संकट के कारण तो ब्राजील के राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी की तारीफ में रामायण की जीवनरक्षक संजीवनी भारत से मिलने की बात कह दी.
अहंकारी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को सार्वजनिक रूप से भारत का एहसान मानकर धन्यवाद देना पड़ा. वह भी उस कुनैन (हाइड्रोक्लोरोक्वीन) की अधिकाधिक सप्लाई के लिए, जिसे बचपन में हमें मलेरिया बुखार में खाने को दी जाती थी और बहुत सस्ती या सरकारी विभाग से मुफ्त में दी जाती थी.
भारत के साथ दादागीरी अब नहीं चल सकती और दवाइयों के निर्माण, उपयोग, आयात - निर्यात के पर्याप्त नियम कानून हैं. कुछ बहुत कड़े भी हैं, जैसे इस सामान्य गरीब कुनैन के निर्यात पर भी कुछ वर्षो से प्रतिबंध रहा है, क्योंकि इसमें भारतीय हितों का ध्यान अधिक रखा जाता है. फिर भी यह गलतफहमी नहीं पाली जा सकती कि विश्व में हमारा वर्चस्व ही हो गया या हो जाएगा और बहुराष्ट्रीय कंपनियां केवल उदारता से भारत में 100 प्रतिशत पूंजी लगाकर मुनाफा और धंधा नहीं देख रही हैं.
असलियत तो यह है कि दवाई निर्माण की कंपनियों में भारी पूंजी निवेश की छूट मिलने से कई विदेशी कंपनियां लाभ उठा रही हैं . दुखद बात यह है कि पिछले दशकों में सार्वजनिक क्षेत्न की पांच बड़ी कंपनियों को हमारी सरकारी लालफीताशाही एवं निहित स्वार्थो वाली लॉबी ने ठप करा दिया. चार तो बंद कर उनके उत्पादक केंद्रों की जमीन, मशीन इत्यादि बिकवाने की फाइलें बना दीं. केवल कर्नाटक की एक कंपनी थोड़े से मुनाफे के आधार पर बची है.
60-70 के दशक में बने आईडीपीएल (इंडियन ड्रग्स फार्मास्युटिकल्स लिमिटेड, हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स लिमिटेड, बंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्युटिकल्स, राजस्थान ड्रग्स एंड फार्मास्युटिकल्स जैसे संस्थानों को सुधार कर अधिक सुयोग्य लोगों को रखकर कच्चा माल कही जाने वाली दवाइयों का बड़े पैमाने पर निर्माण होते रहने पर हमें बल्क ड्रग्स (एपीआई ) के लिए चीन से आयात पर निर्भर नहीं होना पड़ता. फिलहाल सरकारी गलियारों से यह संकेत मिले हैं कि अर्ध मृत हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स को पुन: नए सिरे से आगे बढ़ाकर दवाइयों के निर्माण को नई गति दी जाए.
बहरहाल सार्वजनिक क्षेत्न की अपेक्षा निजी क्षेत्न में ही बड़े पैमाने पर पूंजी लगाकर न केवल भारत में अधिकाधिक सही और उपयुक्त दामों पर दवाइयां उपलब्ध करना है, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सही अर्थो में चीन को पीछे छोड़कर कई गुना निर्यात बढ़ाकर दुनिया में वर्चस्व कायम करने का सुनहरा अवसर आ गया है.
अब वर्तमान स्थिति और तथ्यों पर भी ध्यान दिया जाए. इस समय हमारे औषधि यानी फार्मा उद्योग में करीब 43 अरब डॉलर (3,01000 करोड़ रुपए) की पूंजी लगी हुई है. 2018-2019 तक हम करीब 20 अरब डॉलर यानी लगभग 1 लाख 4 हजार 420 करोड़ रुपयों की दवाई निर्यात कर रहे थे. कच्चे माल तथा अन्य दवाइयों के आयात पर 2 हजार 500 करोड़ रुपया खर्च कर रहे हैं. निर्यातकों में अग्रणी और विश्वसनीय होने से विश्व में भारत को ‘फार्मेसी ऑफ वर्ल्ड’ तक कहा जाने लगा है. भारत दुनिया में जेनेरिक दवाइयों का सबसे बड़ा निर्यातक है.
नई परिस्थितियों में चीन से व्यापारिक रिश्तों और दबाव के रहते हुए भारतीय कंपनियों को वरीयता देने के लिए नियम कानून में संशोधन करने होंगे. भारत के पास चीन की तुलना में जड़ी-बूटियों, रसायन, वनस्पति कम तो नहीं माने जा सकते हैं.
कोरोना संकट से निपटने के साथ भारतीय फार्मा उद्योग को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए. भारत के पास खनिजों की तरह तेल और औषधि के विपुल भंडार हैं और इस पहाड़ पर भारत का झंडा अधिक ईमानदार और सधे कदमों से ही फहराया जा सकेगा.