आलोक मेहता का ब्लॉग: सत्ता के बल पर ‘दोषी’ ठहराने का बढ़ता चलन
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: October 5, 2019 05:16 IST2019-10-05T05:16:55+5:302019-10-05T05:16:55+5:30
चीन में कम्युनिस्ट राज के बावजूद दीवारों और पोस्टरों पर समस्याओं पर नाराजगी की बातें लिखी, देखी-पढ़ी जाती हैं. ईरान में बुर्काधारी महिलाओं के प्रदर्शन के दृश्य मैंने स्वयं देखे हैं. पाकिस्तान में इन दिनों कुछ समाचार चैनलों या अखबारों में प्रधानमंत्री इमरान खान के कारनामों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. फिर भारत जैसे देश में समझदार नेता इतने कठोर, अहंकारी क्यों होते जा रहे हैं? इसका दूसरा बड़ा कारण यह है कि नेता ‘चुनाव प्रबंधन’ में माहिर हो गए हैं, लेकिन जमीन से कटते जा रहे हैं.

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। (फाइल फोटो)
सिंहासन वही होता है, सत्ताधारी बदलते रहते हैं. पीछे लगे झंडे या सिर पर लगी टोपी का रंग बदल सकता है. अहंकार और आक्रोश समान रहता है. तभी तो संवेदनशील सुशासन के लिए प्रचारित नीतीश कुमार पटना और बिहार में भारी वर्षा, बाढ़, जल-भराव और लाखों लोगों की संकटमय स्थिति में सुधार और राहत के सवाल पर बुरी तरह भड़क गए.
नीतीश ने मीडिया को ही पूर्वाग्रही और दोषी ठहरा दिया कि पत्रकार बढ़ा-चढ़ाकर दिखा रहे, लिख-बोल रहे हैं. आपत्ति यहां तक कि देश के प्रमुख समाचार चैनल के संवाददाता पटना क्यों आ गए? अनुभवी मुख्यमंत्री इतनी सी बात नहीं समझ सकते कि दिल्ली-मुंबई या देश-विदेश से आने वाले पत्रकार कम से कम पूर्वाग्रही हो सकते हैं. स्थानीय पत्रकार तो स्वयं बाढ़ या अन्य कारणों से सरकार से निजी नाराजगी रख सकता है. हां, कोप से बचने के लिए सिर झुकाकर लीपापोती करने वाले कुछ लोग हो सकते हैं.
मुख्यमंत्री के अपने सहयोगी उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी तक जल जमाव की भारी अव्यवस्था से तीन दिन अपने घर में फंसे रहे. मेहरबान मुख्यमंत्री ने उन्हें निकालने की आपात व्यवस्था नहीं की. अन्य नेता, अधिकारी, व्यापारी और आम नागरिक मुसीबत झेलते रहे. आश्चर्य की बात यह भी है कि नीतीश कुमार ने मुंबई और अमेरिका में भी भारी वर्षा और जल जमाव से तुलना कर दी.
निश्चित रूप से मुंबई के भी कुछ इलाके, सड़कें कुछ दिन प्रभावित होती हैं. लेकिन अधिकांश दिनों में जनजीवन लोकल ट्रेन और अन्य सेवाओं से सामान्य बना रहता है.
यों अकेले नीतीश कुमार और उनकी सत्तारूढ़ पार्टी जद(यू) ही नहीं भाजपा, राजद तथा कांग्रेस बिहार में राज करती रही हैं. सत्ता या प्रतिपक्ष में रहकर वे भी एक-दूसरे को और मीडिया को ‘अपराधी’ ठहराने में नहीं चूकते. यों पिछले चार वर्षो के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने मीडिया से नफरत के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं. हां, संवैधानिक नियम-कानूनों की वजह से वह कोई कानूनी दंड देने की स्थिति में नहीं हैं.
भारत में प्रदेशों के कुछ सत्ताधारी और उनकी पुलिस कानूनों को ताक पर रखकर झूठे मामले दर्ज करवाने से नहीं हिचकते.
असली समस्या वर्तमान दौर में असहनशीलता की है. असहमतियों को बर्दाश्त करना दूर रहा, लोगों को सुनना भी अच्छा नहीं लगता. स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश में विचारों के लिए हर खिड़की, दरवाजे खुले रखने की जरूरत होती है.
चीन में कम्युनिस्ट राज के बावजूद दीवारों और पोस्टरों पर समस्याओं पर नाराजगी की बातें लिखी, देखी-पढ़ी जाती हैं. ईरान में बुर्काधारी महिलाओं के प्रदर्शन के दृश्य मैंने स्वयं देखे हैं. पाकिस्तान में इन दिनों कुछ समाचार चैनलों या अखबारों में प्रधानमंत्री इमरान खान के कारनामों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. फिर भारत जैसे देश में समझदार नेता इतने कठोर, अहंकारी क्यों होते जा रहे हैं? इसका दूसरा बड़ा कारण यह है कि नेता ‘चुनाव प्रबंधन’ में माहिर हो गए हैं, लेकिन जमीन से कटते जा रहे हैं. यहां तक कि अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं, समर्थकों से दूरी बढ़ती जा रही है. वे ‘डिजिटल’ संपर्क पर विश्वास करने लगे हैं. इससे आवश्यक सूचनाएं मिल सकती हैं, दिल-दिमाग के दर्द का पता नहीं चल सकता है. यही नहीं, विभिन्न सरकारी या निजी व्यावसायिक एजेंसियों से सूचना पाने या प्रचार करवाने पर निर्भर रहने लगे हैं.
प्रशांत किशोर जैसे अमेरिका रिटर्न लोगों की चांदी हो जाती है, लेकिन संगठन, पंचायत, पार्षद, विधायक, दूसरी-तीसरी पंक्ति के मंत्री-सांसद तक की महत्ता नाम मात्र की रह जाती है. इसी वजह से समाज में अच्छे काम की जानकारी लोगों तक नहीं पहुंचती.
वैसे सत्ताधारी यह भी जानते हैं कि जनता की भागीदारी के बिना गांव, शहर, प्रदेश, देश की प्रगति संभव नहीं है. महाराष्ट्र-गुजरात हो अथवा हरियाणा-पंजाब या आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़-झारखंड, ग्राम पंचायतों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने सामाजिक-आर्थिक बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. दुर्भाग्यवश बिहार-उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेशों में राजनीतिक सत्ताधारियों ने जमीनी संस्थाओं को जेबी बना दिया.
हां, भाजपा और आरएसएस ने संगठनात्मक ढांचे का उपयोग किया. इसी का परिणाम हुआ कि उसे राष्ट्रीय स्तर पर पूर्ण बहुमत मिल गया. कुछ राज्यों में गुटबाजी या विधायकों-मंत्रियों की निष्क्रियता ने उसे पराजित भी किया है. लेकिन हरियाणा जैसे प्रदेश में पंचायत चुनाव में मैट्रिक की शिक्षा की अनिवार्यता से हुए चुनाव तथा पंचायतों को मिले अधिकारों से गांवों में चमत्कारिक ढंग से बदलाव आया है.
अब जम्मू-कश्मीर में भी पंचायतें ही संपूर्ण व्यवस्था को बदलने एवं नई विकास धारा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकेंगी. प्राकृतिक विपदा हो अथवा प्राकृतिक संपदा का संरक्षण या सामाजिक-आर्थिक तरक्की के लिए केंद्रीय सत्ता के बजाय सुदूर ग्रामीण स्तर तक सत्ता के विकेंद्रीकरण, योजनाओं का क्रियान्वयन होने पर ही सत्ता को कल्याणकारी एवं लोकप्रिय साबित किया जा
सकता है.