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गौरीशंकर राजहंस का ब्लॉगः राजनीति में बनते नए समीकरण 

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: January 18, 2019 05:48 IST

अनुभव से मायावती और अखिलेश यादव ने सीखा कि यदि वे पहले की तरह ही एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन बने रहेंगे तो कभी सत्ता में नहीं आ सकेंगे. इसीलिए उन्होंने परिस्थितियों से समझौता कर लिया.

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गौरीशंकर राजहंसकुछ दिनों पहले जैसे ही नया साल शुरू हुआ, सभी राजनीतिक पार्टियों ने आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारियां शुरू कर दीं. अचानक ही मायावती की पार्टी बहुजन समाज पार्टी और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने हाथ मिला लिया. दोनों ने आगामी लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की 38-38 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया. 

दोनों पार्टियों ने कांग्रेस को झटका दे दिया और उसके लिए रायबरेली और अमेठी संसदीय क्षेत्र की दो सीटें छोड़ दीं. कांग्रेस के लिए इससे बढ़कर अपमान की बात और कुछ नहीं हो सकती थी. इसलिए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने घोषणा की कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश की सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. 

अनुभव से मायावती और अखिलेश यादव ने सीखा कि यदि वे पहले की तरह ही एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन बने रहेंगे तो कभी सत्ता में नहीं आ सकेंगे. इसीलिए उन्होंने परिस्थितियों से समझौता कर लिया. बसपा पिछले तीन चुनाव हार गई थी. दो तो उत्तर प्रदेश में 2012 और 2017 में विधानसभा चुनाव हारी और 2014 में लोकसभा के आम चुनाव में भी उसकी हार हुई थी. 

लोकसभा में मायावती की पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली. इसी तरह अखिलेश यादव को भी 2014 और 2017 में बुरी तरह शिकस्त मिली थी. दोनों ने अनुभव से यह सीख लिया था कि दोनों के अलग-अलग चुनाव लड़ने से बसपा और सपा समाप्त हो जाएंगी. पिछले उपचुनावों में मायावती ने यह देखा कि दलितों के वोट तो सपा को मिल जाते हैं परंतु सपा के वोट उनकी पार्टी को नहीं मिलते. ऐसे में उनके पास समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाकर चुनाव लड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं था. अनुभव के आधार पर उन्होंने दुश्मन को दोस्त बनाया. 

अब तो करीब-करीब स्पष्ट हो गया है कि राजनीति में दो और दो हमेशा चार नहीं होते हैं. पुराना अनुभव बताता है कि इंदिरा गांधी के समय में जब सभी विपक्षी दल एक होकर इंदिरा गांधी और कांग्रेस के खिलाफ हो गए थे तब चुनाव में उन्हें भारी सफलता मिली. यहां तक कि खुद इंदिरा गांधी भी अपना चुनाव हार गईं. परंतु जैसे ही विपक्षी दल सत्ता में आए, उनके मतभेद बढ़ने लगे और सभी दलों ने एक-दूसरे के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया. यहां तक कि चौधरी चरण सिंह तो प्रधानमंत्री बनने के बाद लोकसभा का चेहरा भी नहीं देख सके और कांग्रेस द्वारा उनसे अपने समर्थन का हाथ खींच लेने के बाद चौधरी चरण सिंह की सरकार देखते-देखते ही ढह गई. 

एक बात तो माननी होगी कि आज की तारीख में पूरे भारत में अधिक संख्या नौजवान वोटरों की है. वे भावना में बहकर केवल जाति को तरजीह नहीं देते हैं बल्कि हकीकत को महत्व देंगे. सपा-बसपा गठबंधन की सफलता भी युवा मतदाताओं के रुख पर ही टिकी है. 

टॅग्स :अखिलेश यादवमायावतीबहुजन समाज पार्टी (बसपा)समाजवादी पार्टी
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