अभय कुमार दुबे का नजरियाः गठजोड़ की राजनीति के लिए बने आचार संहिता
By अभय कुमार दुबे | Published: July 16, 2019 06:17 AM2019-07-16T06:17:57+5:302019-07-16T06:17:57+5:30
इस तरह का संकट हमारे लोकतंत्र में न पहला है और न ही आखिरी. इसका मूल कारण है हमारे यहां सत्ता के लिए होड़ करने की कोई नियमावली और आचार संहिता न होना.
कर्नाटक के राजनीतिक संकट के संदर्भ में मीडिया मंचों पर एक बात अजीब तरीके से पूछी जा रही है : विधायक बिक रहे हैं या उन्हें खरीदा जा रहा है? यह बात वैसी ही है कि मुर्गी अंडे की जिम्मेदार है या अंडा मुर्गी का? दरअसल, इस तरह का संकट हमारे लोकतंत्र में न पहला है और न ही आखिरी. इसका मूल कारण है हमारे यहां सत्ता के लिए होड़ करने की कोई नियमावली और आचार संहिता न होना.
मौजूदा हालात में नियम केवल एक है कि चुनाव लड़िए और जिसके पास सीटें अधिक हों (चाहे वह एक पार्टी हो या पार्टियों का कोई जमावड़ा) वह सरकार बना ले. यह नियम कितना अपर्याप्त है इसका पता कर्नाटक-संकट के आईने में देखने से लग जाता है. केवल आंख का अंधा ही यह कह सकता है कि यह संकट केवल बेंगलुरु तक ही सीमित है. गोवा में कुछ-कुछ इसी तरह का घटनाक्रम चल रहा है. आने वाला कल ऐसा ही राजनीतिक नाटक राजस्थान और मध्य प्रदेश के मंचों पर घटित करने वाला है. हालिया अतीत इसी घटनाक्रम का उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में गवाह बन चुका है.
दरअसल, जिस समय हमारा लोकतंत्र संस्थागत रूप से स्थापित हो रहा था, उस समय यह अंदाजा लगाना मुश्किल था कि भविष्य में सत्ता की होड़ लोकतंत्र के ढांचे को किस तरह से समस्याग्रस्त कर सकती है. उस समय स्थिति यह थी कि एक पार्टी यानी कांग्रेस पूरे देश के चप्पे-चप्पे में फैली हुई थी, उसे हर चुनाव में आसानी से हुकूमत करने लायक बहुमत मिल जाता था, उसकी और उसके नेतृत्व की साख भी अच्छी थी. मोटे तौर पर सत्ता की होड़ अगर होती भी थी तो उसी विशाल महाप्रबल दल के भीतर अदृश्य ढंग से होती थी. उसकी विकृतियां निकल कर बाहर नहीं आ पाती थीं, और पार्टी का प्रभावशाली नेतृत्व पंच फैसला करके केंद्र और राज्यों में सत्ता की बागडोर उपयुक्त लगने वाले लोगों के हाथों में सौंप देता था.
जरा कल्पना कीजिए, अगर नियम यह होता कि एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने वाली पार्टियां सरकार बनाने के लिए गठजोड़ नहीं कर सकतीं. यानी केवल चुनाव-पूर्व गठजोड़ ही सत्ता में आ सकता है, चुनाव-उपरांत नहीं- तो क्या होता? अगर इसी के साथ एक उपनियम यह भी जुड़ा होता कि मुख्यमंत्री केवल उसी पार्टी का बन सकता है जो संख्या में बड़ी हो, यानी मुख्यमंत्री पद का लालच दिखा कर कोई बड़ी पार्टी छोटी लेकिन अति-महत्वाकांक्षी पार्टी को अपनी ओर नहीं खींच सकती- तो क्या होता?
तो होता यह कि नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी डेढ़ सौ से ज्यादा सीटें होने बावजूद पचास के आसपास सीटें रखने वाली बहुजन समाज पार्टी को तीन-तीन बार मुख्यमंत्री पद नहीं दे पाती. साथ ही छह-छह महीने के लिए बारी-बारी से मुख्यमंत्री बनने के निहायत ही निकृष्ट कोटि के हथकंडे को ईजाद भी नहीं किया जाता. अगर उत्तर प्रदेश में तब यह नहीं होता, तो आज कर्नाटक में भी यह नहीं होता दिखाई देता. ध्यान रहे कि कांग्रेस और जनता दल (एस) के बीच बारी-बारी से मुख्यमंत्री बनने के विकल्प पर भी विचार हो चुका है. हम जानते हैं कि मुख्यमंत्री पद के जरिये सत्ता के लाभ लूटने की यह घटिया राजनीति किन हदों तक पहुंची. झारखंड में सारी सीमाओं और मर्यादाओं को लांघते हुए सिर्फ एक विधायक वाली पार्टी को मुख्यमंत्री पद दे दिया गया, और वह विधायक जब तक मुख्यमंत्री पद पर रहा, उसने भ्रष्टाचार के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए और बाद में उसे इसके लिए जेल भी जाना पड़ा. दरअसल, उसके साथ उन राजनीतिक शक्तियों को भी दंडित किया जाना चाहिए था जो उस एक विधायक वाली पार्टी को सत्ता के शीर्ष पर बैठाने के लिए जिम्मेदार थीं.
अर्थात् इस संकट से पहला सबक तो यह सीखा जा सकता है कि राजनीतिक-संस्थागत सुधारों की एक प्रक्रिया के तहत आम सहमति से गठजोड़ बनाने के कुछ नियम-कानून दूरगामी नजरिये से सोच समझ कर बनाए जाने चाहिए. लेकिन क्या गठजोड़ों की यह आचार संहिता ही हमारे लोकतंत्र और सार्वजनिक जीवन को स्वस्थ बनाने के लिए उपयुक्त होगी? सत्ता की होड़ से पैदा होने वाला संकट क्या एक पार्टी की सरकार के भीतर नहीं पैदा हो सकता?
याद करें कि गुजरात की राजनीति में नरेंद्र मोदी के उत्थान से पहले भाजपा की सरकार के भीतरी झगड़ों से क्या नजारा पैदा हुआ था. विधायकों का एक हिस्सा मीडिया में ‘हजूरिया’ कहलाता था, क्योंकि वह मुख्यमंत्री के पक्ष में था. विधायकों का दूसरा हिस्सा ‘खजूरिया’ कहलाता था क्योंकि उसके सदस्यों को खजुराहो के एक लग्जरी रिसोर्ट में रखा गया था. अगर सत्ता की होड़ से पैदा होने वाली विकृतियों से लोकतंत्र को सुरक्षित करना है तो इन अंदेशों के बारे में भी पहले से सोच लेना होगा.
कैसी विडंबना है कि कर्नाटक की इसी गठजोड़ सरकार ने देश के पैमाने पर विपक्षी एकता की एक संभावना पैदा की थी, जो मृगतृष्णा ही साबित हुई. ऐसी मरीचिकाएं हमारे लोकतंत्र को खोखला कर रही हैं, और हम उनके निवारण के लिए कोई संस्थागत उपाय न करके हाथ पर हाथ रखे बैठे हैं.