अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: भारत को मानसिक गुलामी से मुक्ति पाने की आवश्यकता

By अभय कुमार दुबे | Published: June 17, 2020 01:30 PM2020-06-17T13:30:55+5:302020-06-17T13:30:55+5:30

अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में शुरू हुआ ब्रिटिश प्राच्यवाद भारत में अंग्रेजी शासन को लंबी उम्र देने और औपनिवेशिक अधीनता को जायज ठहराने का एक बौद्धिक उपक्रम था.

Abhay Kumar Dubey's blog: The need to get rid of mental slavery | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: भारत को मानसिक गुलामी से मुक्ति पाने की आवश्यकता

भारतीय झंडा तिरंगा (फाइल फोटो)

संयुक्त राज्य अमेरिका में अश्वेत जार्ज फ्लॉयड की पुलिस के हाथों हत्या के विरोध में चल रहे प्रदर्शनों के परिणामस्वरूप क्रिस्टोफर कोलम्बस की मूर्ति ढहा दी गई. यह खबर भारत के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है.

कोलम्बस भारत की खोज करने के लिए चला था. चूंकि उसका लक्ष्य भारत था इसलिए उसने अमेरिका के मूलवासियों को इंडियन कह कर ही बुलाया. इसी घटना से यूरोपीय उपनिवेशवाद की शुरुआत हुई. अठारहवीं सदी में भारत भी उपनिवेशवाद की चपेट में आया.

भारत पर कब्जा करने के लिए फ़्रांसीसी, डच और ब्रिटिश उपनिवेशकों में कड़ी प्रतियोगिता हुई जिसमें अंग्रेज जीते. फिर 190 वर्ष तक देशी रियासतों को छोड़ कर अधिकतर भारत का शासन लंदन से चलाया जाता रहा.

इस प्रक्रिया में हुआ यह कि भारत में भी कोलम्बस की न सही, लेकिन जार्ज पंचम की मूíत लग गई. न जाने कितनी सड़कों और जगहों के नाम अंग्रेजों के नाम पर रख दिए गए. अब जार्ज पंचम की मूíत हटा दी गई है और हम चाहें तो सड़कों और जगहों के नामों का भी भारतीयकरण कर सकते हैं.

कहना न होगा कि नाम बदलना और मूर्ति हटाना आसान है. अगर कोलम्बस को उपनिवेशवाद का रूपक मानें तो असली कठिन काम भारत के बौद्धिक जीवन के मर्म में स्थापित कोलम्बस की अदृश्य मूर्ति को ढहाने का है. यह अदृश्य मूर्ति अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में अंग्रेजों ने प्राच्यवाद (ओरिएंटलिज्म) की परियोजना के जरिये स्थापित की थी.

इसी का नतीजा है कि आज हमारे बौद्धिकों का एक हिस्सा स्वयं को लिबरल या उदारवादी कहता है. कुछ स्वयं को मार्क्‍सवादी कहते हैं, कुछ समाजवादी कहते हैं. कुछ खुद को कंजरवेटिव कहलाना पसंद करते हैं.

इन तमाम श्रेणियों में वैसे तो तरह-तरह की भिन्नताएं हैं, लेकिन एक समानता है. ये सभी उन्नीसवीं सदी के दौरान भारत पर उपनिवेशवादियों के कब्जों कोजायज ठहराने की कवायद में इस्तेमाल होती रही हैं.  

अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में शुरू हुआ ब्रिटिश प्राच्यवाद भारत में अंग्रेजी शासन को लंबी उम्र देने और औपनिवेशिक अधीनता को जायज ठहराने का एक बौद्धिक उपक्रम था. इसके केंद्र में स्पष्ट रूप से भाषा और संस्कृति का खेल था.

भारतीय जीवन-शैली के प्रति शुरुआती अंग्रेजी लगाव और इसके कारण इंग्लैंड में हुई ईस्ट इंडिया कंपनी की आलोचना की आड़ में यह तथ्य नहीं छिप सकता कि प्राच्यवाद का ब्रिटिश संस्करण उस समय क्या कर रहा था.

इस प्राच्यवाद ने संस्कृत के प्राचीन ग्रंथ खोज कर उनके आधार पर सुनहरे भारतीय अतीत की मनमानी निíमति की, ताकि उसे भारत के समकालीन यथार्थ के मुकाबले खड़ा करके अंधकारपूर्ण मध्ययुग और वर्तमान का आख्यान तैयार किया जा सके.

दूसरे, प्राच्यवादियों ने ही ‘भारोपीय भाषा परिवार’ की  अवधारणा के आधार पर संस्कृत बोलने वाले गोरे रंग के हमलावर आर्यो और ‘द्रविड़ भाषा परिवार’ की भाषाएं बोलने वाले सांवले रंग के दक्षिण भारतीयों के बीच द्वंद्व का सांस्कृतिक विचार तैयार किया.

भारोपीय भाषा परिवार का पूरा प्रपंच अठारहवीं सदी के आखिरी वर्षो में ही विलियम जोंस द्वारा कलकत्ता की एशियाटिक सोसायटी में दिए गए प्रवचनों में रचा गया. उनकी यह कल्पनाशीलता उपनिवेशवाद की भाषाई विचारधारा की देन थी.

तीसरे, औपनिवेशिक बौद्धिकता के चुनिंदा नुमाइंदों के रूप में प्राच्यवादियों ने ही भारतीय चरित्र के ऊपर यूरोपीय चरित्र की, भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेजी भाषा की और भारतीय पारंपरिक ज्ञान के ऊपर पश्चिमी ज्ञान की श्रेष्ठता का पहला दावा पेश किया.

प्राच्यवाद की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि उसने भारत के बुद्धिजीवियों की नई पीढ़ी को पश्चिमी सभ्यता का सांस्कृतिक बिचौलिया बना लिया. यह शब्द सुनने में कड़वा जरूर लगता है लेकिन सच्चई यही है कि अंग्रेजी प्रधान शिक्षा-प्रणाली ने हमारी बौद्धिकता का नाता प्राचीन और मध्ययुगीन भारतीय ज्ञान से तोड़ दिया.

इसी के कारण आज जो हम पढ़ते-पढ़ाते हैं, वह पश्चिमी ज्ञान ही है. दरअसल, पश्चिम का ज्ञान ही हमारे लिए ज्ञान का एकमात्र रूप बन चुका है. यही कारण है कि भारत की आजादी के सात दशक से भी ज्यादा हो जाने के बावजूद भारत के समाज-वैज्ञानिक किसी भी तरह की नई सैद्धांतिकी की रचना करने में असमर्थ रहे हैं.

उनके मानस में बसा हुआ कोलम्बस उन्हें पश्चिमी ज्ञान की कार्बन कॉपी बनने से अधिक कुछ करने ही नहीं देता. जाहिर है कि भारतीय बौद्धिकता की कोलम्बस से मुक्ति के लिए हमें बहुत लंबा इंतजार करना होगा.

Web Title: Abhay Kumar Dubey's blog: The need to get rid of mental slavery

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