अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: नागरिकता का प्रश्न और मीडिया की पक्षधरता

By अभय कुमार दुबे | Published: February 26, 2020 06:04 AM2020-02-26T06:04:41+5:302020-02-26T06:04:41+5:30

दिल्ली चुनाव के नतीजे आने के बाद आजकल टीवी चैनल भारतीय जनता पार्टी के सुर में सुर मिलाते हुए उसे देश विरोधी, संविधान विरोधी, कानून विरोधी और पाकिस्तान की साजिश के रूप में दिखाने से बच रहे हैं. लेकिन, दिल्ली चुनाव के दौरान तकरीबन हर टीवी चैनल (एक-दो अपवादों के साथ) लगभग वही भाषा बोल रहा था जो भाजपा के प्रवक्तागण बोल रहे थे.

Abhay Kumar Dubey's blog over CAA protest in shaheen bagh: The question of citizenship and media advocacy | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: नागरिकता का प्रश्न और मीडिया की पक्षधरता

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: नागरिकता का प्रश्न और मीडिया की पक्षधरता

हाल ही में नए नागरिक कानून के औचित्य पर होने वाली बहस के दौरान मैंने एक टीवी एंकर से पूछा कि सरकार द्वारा यह विधेयक सदन में रखने से पहले आपने अपने चैनल पर कितनी बार नागरिकता के प्रश्न पर चर्चा आयोजित की थी? दरअसल, यह सवाल उन सभी एंकरों से पूछा जाना चाहिए जो सीएए के आलोचकों या शाहीन बाग में धरना देने वाली दादियों के प्रतिनिधियों से बार-बार पूछते हैं कि आखिर उन्हें सीएए की आवश्यकता और महत्व समझ में क्यों नहीं आ रहा है.

इन एंकरों को बताना चाहिए कि अगर नागरिकता का प्रश्न इतना ही संकटग्रस्त था, अगर देश में घुसपैठियों की समस्या इतनी ही प्रबल थी, और अगर नागरिकता का सवाल एक प्रमुख राष्ट्रीय समस्या का रूप ले चुका था, तो टीवी एंकरों ने संविधान संशोधन विधेयक से पहले इसके बारे में कोई चर्चा करना मुनासिब क्यों नहीं समझा? ऐसा क्यों है कि कुछ सरकारी वक्तव्यों के अलावा यह प्रश्न लगातार हमारे सार्वजनिक जीवन की बहसों से गायब ही रहा है? क्या यह टीवी एंकरों का कर्तव्य नहीं था कि वे इतने ‘अतिमहत्वपूर्ण’ प्रश्न की तरफ सारे देश का ध्यान आकर्षित करते? अगर यह सवाल हमारे राष्ट्रीय जीवन को इतना ही आंदोलित कर रहा था तो क्यों नहीं भाजपा ने नौ महीने पहले हुए लोकसभा का चुनाव इस पर लड़ा?

कई एंकर बड़ी मासूमियत से पूछते हैं कि आखिर अपने दस्तावेज दिखाने में दिक्कत क्या है? जब हम बैंक एकाउंट खुलवाने जाते हैं तो भी हमसे पैन कार्ड और आधार जैसे दस्तावेज मांगे जाते हैं. इस तरह वे नागरिकता के प्रश्न को बैंक एकाउंट खुलवाने जैसे रोजमर्रा की मामूली गतिविधि के समकक्ष ठहरा कर उन आपत्तियों को हल्का करने की कोशिश करते हैं जो सरकार के आलोचकों द्वारा जायज तौर पर उठाई जा रही हैं. एंकरगण शाहीन बाग जैसे आंदोलन के नुमाइंदों से यह भी पूछते हैं कि आखिर वे आंदोलन कर ही क्यों रहे हैं?

उनकी (या भारतीय मुसमलानों की) नागरिकता तो खतरे में पड़ी हुई है ही नहीं. सरकार ने तो कह ही दिया है कि एनआरसी लागू करने पर अभी कोई फैसला हुआ ही नहीं है. दिलचस्प बात यह है कि अगर एनआरसी की नौबत दूर-दूर तक नहीं है, तो फिर दस्तावेज दिखाने के आग्रह का औचित्य निरूपण किया ही क्यों जा रहा है? सीएए में तो किसी भारतीय को दस्तावेज दिखाना नहीं है. भारतवासियों से तो दस्तावेज तब मांगे जाएंगे, जब एनआरसी आएगा. सीएए की चर्चा में दस्तावेजों का जिक्र जिस तरह आता है, उसी से पता चलता है कि किस तरह सीएए और एनआरसी आपस में जुड़े हुए हैं. एक के बिना दूसरा बेकार है. वे शर्ट और पैंट की तरह हैं. अगर एक पहनना है तो दूसरा भी पहनना पड़ेगा.

जहां तक शाहीन बाग के आंदोलन का सवाल है, दिल्ली चुनाव के नतीजे आने के बाद आजकल टीवी चैनल भारतीय जनता पार्टी के सुर में सुर मिलाते हुए उसे देश विरोधी, संविधान विरोधी, कानून विरोधी और पाकिस्तान की साजिश के रूप में दिखाने से बच रहे हैं. लेकिन, दिल्ली चुनाव के दौरान तकरीबन हर टीवी चैनल (एक-दो अपवादों के साथ) लगभग वही भाषा बोल रहा था जो भाजपा के प्रवक्तागण बोल रहे थे. चूंकि मसला सुप्रीम कोर्ट के पास है, इसलिए फिलहाल इस आंदोलन की आलोचना ट्रैफिक की समस्या पैदा करने तक सीमित है. लेकिन, यह दिखाने की अभी भी कोशिश हो रही है कि शाहीन बाग की आंदोलनकारी महिलाएं अगर देशविरोधी नहीं तो गुमराह अवश्य हैं.

उन्हें विपक्ष ने भड़का दिया है. टीवी मीडिया (एक-दो अपवादों को छोड़ कर) सीएए, एनआरसी और एनपीआर के पैकेज में निहित भारतीय नागरिकता के किरदार को बदलने, हमारे आंदोलन के बुनियादी ढांचे को परिवर्तित करने और अल्पसंख्यकों को बिना घोषित किए हुए कोने में धकेलने की इस परियोजना को रेखांकित करने के लिए तैयार नहीं है.
मसलन, नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर के नए फॉर्म में सरकार ने दस-बारह नए सवाल जोड़े हैं. इनके कारण एनपीआर अब वह नहीं रहा जो कांग्रेस के जमाने में था. लेकिन, मीडिया इन नए सवालों से एनपीआर के बदले हुए किरदार पर चर्चा नहीं करना चाहता. वह एनपीआर और सामान्य दशवार्षिकी जनगणना को एक दूसरे का पर्याय बता कर इस आलोचना को भटकाना चाहता है.

मेरे पूछने के जवाब में एंकर महोदय ने ईमानदारी बरतते हुए माना कि यह सवाल महत्वपूर्ण है. फिर, जवाब देने की कोशिश करते हुए उन्होंने दलील दी कि जब बढ़ती हुई जनसंख्या जैसे किसी मुद्दे पर सरकार कोई कानून लाएगी तो हम उस पर भी चर्चा शुरू कर देंगे. हालांकि मेरे सवाल का यह कोई जवाब नहीं था, लेकिन इसका भी एक मतलब निकाला जा सकता है. और, वह यह है कि सरकार मुद्दा बनाती है, मीडिया (खासकर टीवी चैनल) को थमाती है और वे बिना अपने आलोचनात्मक विवेक का इस्तेमाल किए हुए उसे लपक लेते हैं. उसी के इर्दगिर्द बहसें आयोजित करके सरकार के पक्ष को पुष्ट करने की कोशिशें करने लगते हैं. ये एंकर इसी को राष्ट्रहित मानते हैं. इससे साफ होता है कि मुख्यत: निजी पूंजी के दम पर चलने वाले मीडिया का काफी-कुछ सरकारीकरण हो चुका है. ऐसा भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार घटित हुआ है.

Web Title: Abhay Kumar Dubey's blog over CAA protest in shaheen bagh: The question of citizenship and media advocacy

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