अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः तीन राज्यों में सरकार विरोधी भावनाओं की तलाश

By अभय कुमार दुबे | Published: November 15, 2018 02:49 PM2018-11-15T14:49:58+5:302018-11-15T14:49:58+5:30

लोकनीति बताती है कि मध्य प्रदेश में भाजपा कांग्रेस से एक फीसदी वोटों से आगे है और छत्तीसगढ़ में तो उसकी बढ़त सात फीसदी है। केवल राजस्थान में कांग्रेस के पास महज चार फीसदी की बढ़त है, लेकिन वहां भी कम-से-कम एक बड़े क्षेत्र में भाजपा कांग्रेस से आगे निकल गई है।

Abhay Kumar Dubey's blog: Looking for anti-incumbency in 3 states | अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः तीन राज्यों में सरकार विरोधी भावनाओं की तलाश

फाइल फोटो

मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभाओं के चुनावों की प्रक्रिया शुरू होने से पहले कांग्रेस पार्टी काफी-कुछ आश्वस्त लग रही थी, और भारतीय जनता पार्टी की समझ में नहीं आ रहा था कि पंद्रह साल की एंटी-इनकंबेंसी से निबटने के लिए उसे क्या रणनीति अपनानी चाहिए। लेकिन, जैसे-जैसे समय गुजरा, परिस्थिति बदलती गई। इस समय स्थिति यह है कि कांग्रेस अपनी आश्वस्ति खो कर स्वयं को कड़े संघर्ष में पा रही है, और भाजपा को लग रहा है कि वह इन तीनों राज्यों में वापसी करने की स्थिति में आ गई है।

लोकनीति (सीएसडीएस) के सर्वेक्षण पर भरोसा किया जा सकता है, क्योंकि यह एजेंसी समाज-वैज्ञानिकों की है, न कि बाजार में खड़ी निजी एजेंसियों की जो सर्वे करवाने वाले के हिसाब से रिपोर्ट में थोड़ा हेरफेर करने के लिए तैयार रहते हैं। लोकनीति बताती है कि मध्य प्रदेश में भाजपा कांग्रेस से एक फीसदी वोटों से आगे है और छत्तीसगढ़ में तो उसकी बढ़त सात फीसदी है।

केवल राजस्थान में कांग्रेस के पास महज चार फीसदी की बढ़त है, लेकिन वहां भी कम-से-कम एक बड़े क्षेत्र में भाजपा कांग्रेस से आगे निकल गई है। अंत में क्या होगा, इसका पता तो 11 दिसंबर को  लगेगा जब चुनाव परिणाम आएंगे, लेकिन अभी हम कम-से-कम राज्यों में मतदाताओं के बदलते मूड के कारणों का कुछ विश्लेषण तो कर ही सकते हैं।

मेरे विचार से हालात अगर बदले हैं तो उसका सबसे बड़ा कारण है संगठन और क्षेत्रीय नेतृत्व के मामले में भाजपा की कांग्रेस पर श्रेष्ठता। भाजपा के पास सुनिश्चित और सुपरिचित क्षेत्रीय नेतृत्व है- और उसका संगठन बूथ स्तर तक उत्साह और कुशलता के साथ चुनाव-प्रचार में लगा हुआ है। इसके मुकाबले कांग्रेस के पास स्थानीय आधार वाले क्षेत्रीय नेतृत्व की कमी है। जो नेतृत्व है भी, उसके बीच कलह के स्तर तक आपसी होड़ है।

कुछ समय पहले तक छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में तो भाजपा का संगठन प्रादेशिक नेतृत्व के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम कर रहा था, लेकिन राजस्थान में भाजपा के कार्यकर्ता और संघ के प्रचारक वहां की मुख्यमंत्री के प्रति अनमनेपन से भरे हुए थे। ऐसा लगता है कि आलाकमान ने मेहनत करके धीरे-धीरे राजस्थान में भी संगठन को समझा बुझा कर वसुंधराराजे के साथ जोड़ने में कामयाबी हासिल कर ली है।

नतीजतन, वहां भी भाजपा की जबर्दस्त चुनावी मशीनरी म।प्र। और राजस्थान की तरह ही काम करने लगी है। आलाकमान और राजे के बीच मतभेदों की खबर कोई नई नहीं है, लेकिन पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व यह भी जानता है कि अगर राजस्थान में उसका सूपड़ा साफ हो गया तो उसका विपरीत असर लोकसभा चुनावों पर पड़ना लाजिमी है।

इस प्रदेश का इतिहास बताता है कि जो पार्टी विधानसभा जीतती है, उसे ही लोकसभा की ज्यादातर सीटें मिलती  हैं। इसी डर से वहां संघ परिवार शुरू से ही एक राजनीतिक स्पिन देने में लगा हुआ था। ‘रानी तेरी खैर नहीं, मोदी तुझसे बैर नहीं’ जैसे नारे ने इसी स्पिन के गर्भ से जन्म लिया था। राजस्थान के इस राजनीतिक प्रकरण से ऐसा लगता है कि वहां का चुनाव परिणाम भाजपा और संघ परिवार की अंदरूनी राजनीति पर काफी-कुछ निर्भर रहेगा। 

इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा की इन तीनों सरकारों के प्रति वोटरों के बीच अनमनापन और एक हद तक नाराजगी है। यह उन आंकड़ों के रूप में सामने आया भी है जो भाजपा की घटी हुई संभावनाओं को रेखांकित करते हैं। लेकिन, इससे यह भी पता लगता है कि इन राज्यों में सरकार-विरोधी भावनाएं उतनी प्रबल नहीं है जितनी होनी चाहिए थी। और, साथ में यह भी लगता है कि जो भी एंटी-इनकंबेंसी है, कांग्रेस उसका पूरा लाभ नहीं उठा पा रही है। अगर कांग्रेस के पास एकताबद्ध क्षेत्रीय नेतृत्व होता और वह इन राज्यों में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा कर पाने में समर्थ होती तो इस समय वह सर्वेक्षण के आंकड़ों में तीनों प्रदेशों में छह से सात फीसदी की बढ़त पर खड़ी होती।

कांग्रेस अगर छोटी पार्टयिों (बसपा, गोंडवाना पार्टी, जमींदारा पार्टी आदि) के साथ इन तीन राज्यों में सीटों का तालमेल कर पाती तो भी वह हवा को अपने पक्ष में बहा सकती थी। लेकिन शुरुआती कोशिशें करने के बाद कांग्रेस ने इस मोर्चे पर भी हार मान ली। उसके प्रवक्ता तर्क देने लगे कि उनकी प्राथमिकता तो लोकसभा चुनावों में गठजोड़ पर है। जाहिर है कि यह दलील सही मौके पर सही गठजोड़ न बना पाने की कुशलता में कमी को नहीं छिपा सकती।

यह सर्वेक्षण एक ही तरीके से गलत साबित हो सकता है- अगर वोटरों के बीच खामोश किस्म की सरकार विरोधी भावनाएं हों जो वे ठीक मतदान के दिन ही व्यक्त करना पसंद कर रहे हों। ऐसा होना मुश्किल तो है, पर असंभव नहीं।

Web Title: Abhay Kumar Dubey's blog: Looking for anti-incumbency in 3 states

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