अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: पेगासस मामले का फायदा उठा सकेगा विपक्ष?

By अभय कुमार दुबे | Published: August 3, 2021 11:25 AM2021-08-03T11:25:09+5:302021-08-03T11:27:34+5:30

विपक्ष को आकलन करना चाहिए कि क्या पेगासस जासूसी कांड में बोफोर्स कांड जैसा राजनीतिक प्रभाव डालने की क्षमता है? इससे क्या मध्यवर्ग आंदोलित है? क्या आम लोग इससे प्रभावित हुए हैं?

Abhay Kumar Dubey blog: Will opposition able to take advantage Pegasus issue | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: पेगासस मामले का फायदा उठा सकेगा विपक्ष?

पेगासस मामले का फायदा उठा सकेगा विपक्ष?

पेगासस जासूसी प्रकरण भारतीय राजनीति के लिए एकदम नई चीज है. ऐसी घटना  पहले कभी नहीं हुई. इसका ताल्लुक केवल केंद्र सरकार से ही है. विपक्ष की राज्य सरकारों की इसमें कोई भूमिका नहीं है. बाकी सभी मुद्दों पर विपक्ष को भाजपा की तरफ से यह आलोचना सुननी पड़ती है कि आपकी राज्य सरकारों की स्थिति भी इन मसलों पर केंद्र सरकार से अलग नहीं है. 

मसलन, पेट्रोल-डीजल के सवाल पर भाजपा के प्रवक्ता पूछते हैं कि विपक्ष की किस सरकार ने अपने टैक्सों को घटा कर राज्य में इन्हें सस्ता किया है? दरअसल सभी सरकारें इन पदार्थो से बड़े पैमाने पर राजस्व कमा रही हैं. केंद्र ज्यादा कमा रहा है, पर राज्य सरकारें भी जितना हो सकता है कमाई कर रही हैं. इन पदार्थो को जीएसटी के तहत लाने पर भी कोई राज्य सरकार राजी नहीं है. 

शराब और पेट्रोलियम ये दोनों सरकारों के लिए कुबेर का खजाना हैं. कोविड प्रबंधन में जो गड़बड़ियां हुई हैं उनमें भी राज्य सरकारों की भूमिका रही है. अगर वैक्सीन के कुप्रबंधन को जोड़ लिया जाए तो केंद्र की भूमिका ज्यादा हो जाती है, लेकिन भाजपा सरकार को आड़े हाथों लेने का वैसा अवसर विपक्ष के  पास नहीं आ पाता, जैसा वह पेगासस जासूसी कांड में दिख रहा है.

लेकिन, इसी मुकाम पर विपक्ष को अपने आप से एक सवाल पूछना चाहिए कि क्या पेगासस जासूसी कांड से आम लोग प्रभावित हुए हैं? क्या मध्यवर्ग इसे लेकर आंदोलित और उत्तेजित है या भविष्य में हो सकता है? या, यह कितना भी संगीन क्यों न हो, केवल बड़े लोगों का ही मसला है? विपक्ष को यह भी आकलन करना चाहिए कि क्या पेगासस जासूसी कांड में बोफोर्स कांड जैसा राजनीतिक प्रभाव डालने की क्षमता है? 

अस्सी के दशक के राजनीतिक इतिहास पर निगाह डालने  पर ध्यान आ सकता है कि बोफोर्स सौदे में कथित दलाली के मामले ने वोटरों के मानस को स्पर्श किया था. एचडीडब्ल्यू पनडुब्बी कांड भी उसके साथ जुड़ गया था. चूंकि मसला रक्षा सौदों का था इसलिए विश्वनाथ  प्रताप  सिंह और एन.टी. रामाराव के नेतृत्व में राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले से जुड़ सका था. राजीव गांधी ने उससे निपटने में बहुत सी गलतियां की थीं. 

विपक्ष को यह भी याद करना चाहिए कि उस समय बोफोर्स मुद्दा एक बार उछलने के बाद पहले ठंडा पड़ा, और फिर विपक्ष ने उसमें दोबारा जान डालने की सफल रणनीति बनाई और उसे लागू करके दिखाया. नतीजे के तौर  पर कांग्रेस दो सौ से ज्यादा सीटें तो  पा सकी, लेकिन  पूर्ण बहुमत  प्राप्त नहीं कर  पाई. 

उन दिनों कांग्रेस की आत्म-छवि अकेले राज्य करने की थी. वह गठजोड़ सरकार का नेतृत्व करने के बारे में सोचने के लिए भी तैयार नहीं थी, वर्ना उस समय भी कांग्रेस की ही सरकार बनती. पंद्रह साल बाद उसी कांग्रेस ने दो सौ से काफी कम सीटों  पर ही सरकार बना ली थी.

समझने की बात यह है कि बोफोर्स के मुद्दे ने अस्सी के दशक में गैर-कांग्रेसवाद के दूसरे संस्करण की जमीन तैयार कर दी थी. उसके पास राजीव गांधी को चुनौती देने के लिए विश्वनाथ प्रताप  सिंह की हस्ती थी. वी. पी. सिंह राजनीतिक रूप से कुशल और लचीले थे. झूठी हो या सच्ची, उनके  पास एक नैतिक आभा थी. 

राजीव सरकार के मंत्रिमंडल में काम करते हुए उन्होंने अपनी छवि भ्रष्टाचार विरोधी राजनेता के रूप में बना ली थी. गैर-कांग्रेसवाद के 1967 वाले संस्करण में जो काम डॉ. लोहिया और चरण सिंह ने मिल कर किया था, वही काम अस्सी के दशक के आखिरी वर्षो में वी. पी. सिंह ने अकेले कर दिखाया. आज के विपक्ष के पास न तो लोहिया और चरण सिंह हैं, न ही उसके  पास वी. पी. सिंह जैसा कोई नेता है.

तीसरी बात यह है कि यह समय गैर-कांग्रेसवाद का न होकर गैर-भाजपावाद की संभावनाएं टटोलने का है. पिछले दो लोकसभा चुनावों में विपक्षी एकता का सूचकांक शून्य रहा है. इसीलिए मात्र 31 और 38 फीसदी वोट पाकर नरेंद्र मोदी पूर्ण बहुमत की सरकार चला पा रहे हैं (कांग्रेस पूर्ण बहुमत की सरकार बनाती थी तो उसे हमेशा चालीस फीसदी या उससे ज्यादा वोट मिलते थे). 
जाहिर है कि इसमें विपक्ष के बंटे रहने की बड़ी भूमिका है. क्या कांग्रेस गैर-भाजपावाद का उस तरह से नेतृत्व कर पाएगी जिस तरह से कभी लोहिया और वी.पी. सिंह ने गैर-कांग्रेसवाद का किया था? 

पिछले दो चुनावों से कांग्रेस इस जिम्मेदारी को उठाने में विफल रही है. होता यह है कि जैसे ही कांग्रेस विपक्षी एकता करने की कोशिश करती है, वैसे ही क्षेत्रीय शक्तियों को दिक्कत होने लगती है. कांग्रेस उन राज्यों में उनकी प्रतियोगी रही है, और आज भी है. दरअसल, कांग्रेस को हराकर ही ज्यादातर क्षेत्रीय शक्तियां खड़ी हो पाई हैं.

ऐसे में विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस से ज्यादा मुफीद यह लगता है कि कोई क्षेत्रीय शक्ति ही विपक्षी एकता के मंच की रचना करने की कोशिश करे. शायद इसी बात को समझते हुए शरद पवार और ममता बनर्जी ने यह काम शुरू कर दिया है. कांग्रेस को तो सोचना यह है कि जब पवार और ममता विपक्ष को एक जगह ले आएंगे, तो उस संरचना में उसकी भूमिका क्या होगी? वह विपक्ष की उस एकजुटता के साथ खुद को कैसे समायोजित करेगी?

Web Title: Abhay Kumar Dubey blog: Will opposition able to take advantage Pegasus issue

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे