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अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: दिल्ली के संघर्ष में शहरी सुशासन का परचम

By अभय कुमार दुबे | Updated: January 22, 2020 05:14 IST

अगर दिल्ली के वोटरों के पंद्रह-बीस फीसदी वोटरों ने भी कांग्रेस को चुना, तो राष्ट्रवादी भावनाओं पर भरोसा करने वाली भाजपा का ग्राफ एकदम ऊपर चढ़ सकता है. दरअसल, भाजपा चुनाव जीते या हारे, उसे 30-32 फीसदी वोट मिलते ही हैं. अगर उसके विरोधी वोट बंट जाएं तो इतने वोटों में ही उसे अच्छे चुनावी परिणाम मिल सकते हैं. लेकिन, अगर कांग्रेस को मिलने वाले वोटों का प्रतिशत दस या उससे कम रहा, तो चुनावी प्रतियोगिता व्यावहारिक रूप से तिकोनी न हो कर आमने-सामने की हो जाती है.

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वैसे तो दिल्ली विधानसभा के लिए आठ फरवरी को वोट पड़ेंगे और 11 को नतीजा आएगा. लेकिन अगर मतदान से करीब बीस दिन पहले की हवाओं पर गौर किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि इस चुनावी युद्ध में पाले के एक तरफ अर्बन गवर्नेस या शहरी सुशासन की दावेदारियां होंगी और दूसरी तरफ नागरिकता के प्रश्न के इर्दगिर्द बुनी जा रही राष्ट्रवाद की राजनीति होगी. सत्ता के लिए संघर्षरत मुख्य रूप से तीन दलों (आम आदमी पार्टी, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी) को इन दोनों मुद्दों के बीच की जद्दोजहद के बीच ही अपने लिए चुनावी गोलबंदी करनी पड़ेगी. पहली नजर में यह आसानी से दिख सकता है कि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस मुख्य रूप से शहरी सुशासन के अपने-अपने मॉडल को पेश करके मतदाताओं की निष्ठाओं को आकर्षित करने की कोशिश करेंगी. दूसरी तरफ भाजपा सीएए, एनआरसी और एनपीआर से जुड़े आग्रहों के आधार पर समर्थन जुटाने की कोशिश करेगी. दिल्ली में हालात कुछ ऐसे हैं कि ये तीनों पार्टियां इस विन्यास के अलावा किसी और विकल्प पर विचार करने की स्थिति में ही नहीं हैं. राजनीतिक विकास-क्रम ने उनके राजनीतिक मुकामों का भी फैसला कर दिया है.

कारण साफ है. भाजपा दिल्ली को विधानसभा मिलने के बाद केवल पहला चुनाव जीती थी, और उसके बाद वह लगातार पांच चुनाव हार चुकी है. कांग्रेस के हाथों तीन और फिर ‘आप’ के हाथों दो चुनाव हारने के बाद उसके पास शहरी सुशासन के नाम पर कहने के लिए कुछ है ही नहीं. केंद्र में मजबूती से सत्तारूढ़ इस पार्टी की दिल्ली से संबंधित विडंबना यह है कि राजधानी के नगर निगमों पर अपने दस साल से ज्यादा लंबे कब्जे के बावजूद उसकी छवि के साथ नागरिक सुशासन की कोई आभा नहीं जुड़ पाई है. एक तरह से नगर निगमों का कामकाज उसके गले का पत्थर ही बना हुआ है. दूसरी तरफ, आज की दिल्ली की शक्ल-सूरत मुख्य रूप से शीला दीक्षित के नेतृत्व वाली और 15 साल तक चलने वाली सरकारों के हाथों बनी है. पिछले पांच साल से दिल्ली की बागडोर ‘आप’ के हाथों में है. खास बात यह है कि पाले के एक तरफ यानी शहरी सुशासन के आधार पर अपनी चुनावी रणनीतियां बनाने वाली दोनों पार्टियां जिस तरह के मॉडलों की पैरोकारी कर रही हैं, वे एक-दूसरे से काफी-कुछ भिन्न हैं. कांग्रेस का मॉडल शहरी अधिरचना को बेहतर बनाने और परिवहन को सुधारने की तरफ झुका हुआ है, और ‘आप’ का मॉडल स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली और पानी की सुविधाएं बेहतर करने की ओर उन्मुख है.

प्रश्न यह है कि इन दोनों मॉडलों के बीच अंतर क्या है? कांग्रेस के कार्यकाल पर सड़कों, फ्लाईओवरों और मेट्रो की छाप है. जाहिर है कि विकास का यह पैटर्न बहुत बड़े स्तर के पूंजी-निवेश की मांग करता है. इससे शहर भव्य बनता है और एक सुंदर महानगर की तस्वीर निकल कर आती है. लेकिन यह पैटर्न गरीबों, निम्न-मध्यवर्ग, मध्यवर्ग और उच्च-मध्यवर्ग के जीवन को सुविधाजनक बनाने के बावजूद सीधे-सीधे स्पर्श नहीं करता. इसके उलट ‘आप’ का मॉडल सोशल सेक्टर में जम कर निवेश करने का मॉडल है. इस सरकार ने अपने पहले बजट से ही सामाजिक क्षेत्र में अधिकतर निवेश करके वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के पैरोकारों का ध्यान अपनी ओर खींचा था. विशेष बात यह है कि इस तरह का बजटीय आवंटन ‘आप’ सरकार ने उस जमाने में करना शुरू किया था जब देश के अन्य राज्यों और केंद्र का बजटीय आवंटन सोशल सेक्टर को प्राथमिकता न देने के लिए जाना जा रहा था. यह मॉडल सीधे-सीधे आम लोगों के जीवन को आत्मीय स्पर्श देता है. अब यह दिल्ली की जनता को तय करना है कि वह विकास के किस मॉडल की पीठ पर हाथ रखेगी. दुनिया में सबसे ज्यादा फ्लाईओवरों वाले नगर के रूप में दिल्ली और मेट्रो की बेहतरीन सेवा देने वाली कांग्रेस उसकी प्राथमिकता होगी या सरकारी स्कूलों को चमका देने वाली, मुहल्ला क्लीनिकों की शुरुआत करने वाली या बिजली-पानी की सब्सिडी देने वाली ‘आप’ को वह दोबारा मौका देगी.

शहरी सुशासन के इन दो प्रकारों के बीच की प्रतियोगिता के परिणाम काफी नाजुक हो सकते हैं, अगर दिल्ली के वोटरों के पंद्रह-बीस फीसदी वोटरों ने भी कांग्रेस को चुना, तो राष्ट्रवादी भावनाओं पर भरोसा करने वाली भाजपा का ग्राफ एकदम ऊपर चढ़ सकता है. दरअसल, भाजपा चुनाव जीते या हारे, उसे 30-32 फीसदी वोट मिलते ही हैं. अगर उसके विरोधी वोट बंट जाएं तो इतने वोटों में ही उसे अच्छे चुनावी परिणाम मिल सकते हैं. लेकिन, अगर कांग्रेस को मिलने वाले वोटों का प्रतिशत दस या उससे कम रहा, तो चुनावी प्रतियोगिता व्यावहारिक रूप से तिकोनी न हो कर आमने-सामने की हो जाती है. उस सूरत में परिणाम कमोबेश वैसे ही हो सकते हैं जैसे 2015 में हुए थे. भले ही ‘आप’ को पहले की तरह 67 सीटें न मिलें, पर उसे सत्ता में लौटने से रोकना भाजपा के लिए बहुत कठिन हो जाएगा. एक तरह से भाजपा की किस्मत कांग्रेस के प्रदर्शन पर निर्भर करती है. दिल्ली की राजनीति के पंडितों की मान्यता है कि कांग्रेस स्वयं तो चुनाव नहीं जीत सकती, पर वह भाजपा को जीतने में मदद जरूर कर सकती है. ‘आप’ का प्रदर्शन उतना ही बेहतर होगा, जितना कांग्रेस का प्रदर्शन नीचे जाएगा.

टॅग्स :दिल्ली विधान सभा चुनाव 2020भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी)आम आदमी पार्टीकांग्रेस
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