अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: महामारी से ज्यादा बेहतर ढंग से निपटने की जरूरत
By अभय कुमार दुबे | Published: May 25, 2021 09:37 AM2021-05-25T09:37:47+5:302021-05-25T09:38:42+5:30
कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर को देखकर ये सवाल उठता है कि क्या सरकार ने इस महामारी से निपटने के लिए पर्याप्त कदम उठाए. अब गांव-देहात से आ रही जमीनी रपट कहीं ज्यादा भयावह स्थिति दर्शा रही है.
हो सकता है कि सरकार कोविड की रोकथाम के सवाल पर टीवी की बहस में होने वाली लड़ाई जीत ले रही हो, लेकिन क्या वास्तव में भाजपा के भीतर भी यही राय है कि उसकी सरकारें सबकुछ ठीक-ठाक कर रही हैं? यह महीना भाजपा सरकार के दूसरे कार्यकाल की दूसरी वर्षगांठ का महीना है.
इस मौके पर पार्टी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने अपने कार्यकर्ताओं और सांसदों-विधायकों से कहा है कि वे जनता के बीच जाएं और महामारी से आहत हुए लोगों के घावों पर मरहम लगाएं. यह कहने की जरूरत उन्हें क्यों पड़ी? भाजपा का एक विधायक जब उत्तराखंड में अपने निर्वाचन-क्षेत्र के एक गांव में गया तो उसके नाराज मतदाताओं ने उससे कहा कि अगली बार जब वोट लेने आओगे तो देख लेंगे.
स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने जिन गांव को गोद लिया, वहां का हाल
साल 2018 में दिल्ली के तीन गांवों (सिंघोला, घोघा और धीरपुर) को स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने गोद लिया था. यानी, उन्होंने इन गांवों को अपनी संतान माना था. जब पत्रकार इन गांवों में गए तो वहां के वासियों ने बताया कि हर्षवर्धन 2018 में गोद लेने तो आए थे लेकिन उसके बाद से वे फिर यहां नहीं दिखे.
इन गांवों में संक्रमण फैल चुका है. बहुत से लोग अपने प्राणों से हाथ धो चुके हैं. लेकिन वहां न कोई अस्पताल है, न ही इलाज का कोई इंतजाम. गांव वालों का कहना था कि स्वास्थ्य मंत्री यहां एक नर्स ही भेज दें जो लोगों को दवा तो देती रहे.
दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रादेशिक नेतृत्व के सदस्य राजीव तुली सोशल मीडिया के जरिये राजधानी की भाजपा से पूछ चुके हैं कि इस संकट के समय जब चारों तरफ आग लगी हुई है, उसके नेता कहां गायब हैं? दिल्ली भाजपा के नेताओं ने इस सवाल का जवाब यह कह कर दिया कि वे राजीव तुली नाम के किसी व्यक्ति को नहीं जानते.
समाज-वैज्ञानिक और स्वराज अभियान के संयोजक योगेंद्र यादव ने हमारे सामने कुछ आंकड़े पेश किए हैं. उनके अनुसार स्वास्थ्य संबंधी आंकड़ों की विशेषज्ञ मिशीगन विश्वविद्यालय की प्रोफेसर भ्रमर मुखर्जी का अनुमान है कि भारत में कोविड-19 से हुई मौतों की वास्तविक संख्या सरकारी तौर पर दर्ज आंकड़ों से चार या पांच गुना ज्यादा है.
उस लिहाज से उत्तर प्रदेश में अब तक 70 हजार से 85 हजार के बीच मौतें हो चुकी हैं. इसी पद्धति का इस्तेमाल करते हुए सिएटल विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्युएशन ने अनुमान लगाया है कि अगस्त के महीने के अंत तक इस प्रदेश में कोविड से लगभग एक लाख अठारह हजार मौतें होने की आशंका है. लेकिन गांव-देहात से आ रही जमीनी रपट इससे भी कहीं ज्यादा भयावह स्थिति दर्शा रही है.
मिडिलसेक्स यूनिवर्सिटी के गणितज्ञ प्रोफेसर मुराद बालाजी ने अखबारों में छपी 38 रपटों का विेषण कर यह अनुमान लगाया है कि मई महीने के पहले दो सप्ताह में मृत्यु-दर जनसंख्या का 0.24 प्रतिशत थी, यानी उत्तर प्रदेश में महामारी के उफान के दिनों में प्रतिदिन हजारों मौतें होने की आशंका है.
मुझे लगता है कि सरकार इस बीमारी के सामने हथियार डाल चुकी है. बस उसे उम्मीद केवल इतनी है कि जिस तेजी से महामारी का ग्राफ चढ़ा है, उसी तेजी से गिरेगा भी. और, अब शहरों से आने वाले ताजा आंकड़े इशारा भी कर रहे हैं कि ग्राफ गिर रहा है, अस्पतालों में बिस्तर खाली होने लगे हैं, ऑक्सीजन की मांग भी घट रही है.
सरकार को लगता है कि जैसे ही संकट अपनी गति से कम हुआ, धीरे-धीरे लोग अपनी तकलीफें भूलने लगेंगे. वैसे भी लोकसभा के चुनाव अभी तीन साल दूर हैं. तब तक सत्तारूढ़ दल कुछ ऐसी युक्तियां अपना सकता है जिससे जनता का उसके प्रति गुस्सा घट जाए. लेकिन, क्या समय सत्तारूढ़ दल के नेताओं की मर्जी से चलेगा?
कोवैक्सीन को WHO की मान्यता क्यों नहीं?
जनवरी में प्रधानमंत्री ने दावोस में भाषण देते हुए दावा किया था कि जानें बचाने के मामले में भारत दुनिया में सबसे कामयाब देश बन चुका है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री भी कोरोना की पहली लहर के बाद दावा कर चुके हैं कि भारत ने महामारी को हरा दिया है. लेकिन, जब दूसरी लहर आने वाली थी तो सात मार्च को उन्होंने दावा किया गया कि दूसरे देशों के विपरीत भारत के पास वैक्सीन की पर्याप्त सप्लाई है.
कोविशील्ड वैक्सीन को ‘मेड इन इंडिया’ करार दिया गया. असलियत यह है कि सीरम इंस्टीट्यूट द्वारा बनाई जा रही यह वैक्सीन एस्ट्राजेनका का भारतीय नाम भर है. जो वैक्सीन (कोवैक्सीन) वास्तव में भारत में बनी है, उसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मान्यता देने से इंकार कर दिया है, क्योंकि वह परीक्षण के लिए आवश्यक तीसरे दौर के आंकड़ों को सबूत के तौर पर मुहैया कराने में नाकाम रही थी.
आज भारत का वह नागरिक जिसने कोवैक्सीन लगवाई है, वह अमेरिका और यूरोप की यात्र नहीं कर सकता. कहना न होगा कि सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी का रवैया उस शुतुरमुर्ग जैसा है जो रेत में सिर दबा कर अंधड़ के निकल जाने का इंतजार करना चाहता है. कोई कर भी क्या सकता है.