“ऐ भाई, कोई है...” अंधेरी रात में एक सुनसान सड़क पर ये चार शब्द कुछ ऐसे गूंज रहे थे कि भीतर तक आदमी हिल जाए. दशकों पहले आई थी यह फिल्म. उस दृश्य में यह गुहार लगाने वाला कलाकार था दिलीप कुमार. सड़क पर आने वाली हर कार को रोकने की कोशिश में लगा था- ‘‘ऐ भाई, गाड़ी रोको, मेरी बीवी को अस्पताल पहुंचा दो, मर जाएगी वह.’’ पर कोई कार नहीं रुकी, आसपास के किसी मकान की कोई खिड़की नहीं खुली... फिल्म का नाम शायद ‘मशाल’ था. फिल्म में और क्या था, याद नहीं मुझे, पर ‘ऐ भाई’ वाले दिलीप कुमार की वह गुहार भूले नहीं भूलती.
उस दिन टीवी पर समाचार देखते-सुनते हुए अचानक उछल कर मेरे सामने आ गया था यह दृश्य. नहीं, यह फिल्म का दृश्य नहीं था. बेंगलुरु में घटी एक घटना का समाचार था. स्कूटी पर जाते एक पुरुष और महिला के साथ घटी थी वह घटना. स्कूटी फिसलने से दोनों सड़क पर जा गिरे. समाचार में बताया जा रहा था कि उस व्यक्ति को दिल का दौरा पड़ा था और वह अपनी पत्नी के साथ अस्पताल जा रहा था.
बड़े अस्पताल. छोटे अस्पताल वालों ने भर्ती नहीं किया था. और एंबुलेंस की व्यवस्था भी नहीं की थी. स्कूटी फिसलने से गिरे तो दोनों थे, पर महिला जल्दी उठ गई. अब वह सड़क पर आती-जाती कारों को रोकने के लिए गुहार लगा रही थी. बिल्कुल ‘मशाल’ वाले दिलीप कुमार के दृश्य की तरह और कोई गाड़ी नहीं रुकी. समाचार वाचक बता रहा था,
सीसीटीवी कैमरों से पता चला कुल 17 गाड़ियां उस दौरान वहां से गुजरी थीं. और एक भी नहीं रुकी! स्कूटी चालक की मृत्यु हो गई. वह महिला गुहार लगाती रह गई... कोई कार वाला रुक जाता, कोई उस महिला की मदद कर देता तो शायद उसका पति बच जाता... ‘मशाल’ वाला वह दृश्य व्यक्ति की बेबसी और निर्ममता दोनों का उदाहरण था,
और बेंगलुरु की सड़क का वह दृश्य भी वह कहानी कह रहा था. बेबसी वाली बात तो फिर भी समझ आती है, पर व्यक्ति के इतना निर्मम होने की बात को समझना मुश्किल है. आखिर कैसे कोई इतना निर्मम हो सकता है? ऐसा नहीं है कि व्यक्ति के भीतर की मनुष्यता और संवेदनशीलता मिट गई है. अनेक उदाहरण मिल जाएंगे आदमी की आदमियत के.
पर इस हकीकत से भी आंख नहीं चुराई जा सकती कि कहीं न कहीं हृदय-हीनता हम पर हावी होती जा रही है. लेकिन क्यों? पचास साल पहले उस फिल्मकार ने हृदय-हीनता का एक उदाहरण दिखाया था, उस रात बेंगलुरु में घटी घटना भी ऐसा ही एक उदाहरण प्रस्तुत करती है.
आधी सदी का फासला है इन दोनों घटनाओं में, पर दोनों सवाल एक-सा उठाती हैं– हमारी संवेदनहीनता का सवाल! करुणा, दया, ममता, मैत्री, भाईचारा जैसे शब्द आखिर क्यों अपना महत्व खोते जा रहे हैं? क्यों मनुष्य आत्मकेंद्रित और स्वार्थी बनता जा रहा है? कहीं कुछ है जो हमारे भीतर की संवेदना को, भीतर की मनुष्यता को कुंद बनाता जा रहा है- और हम जानकर भी इससे अनजान बने रहना चाहते हैं!