Climate change: सिर्फ शोर या मामला गंभीर?, ग्लोबल वॉर्मिंग सिर्फ हवा-हवाई बातें

By अभिषेक कुमार सिंह | Updated: December 12, 2024 05:28 IST2024-12-12T05:28:09+5:302024-12-12T05:28:09+5:30

Climate change: उत्तराखंड में देखने को मिल रहा है, जहां नीति घाटी में तेजी से बढ़ते एक हिमनद (ग्लेशियर) का पता चला है.

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सांकेतिक फोटो

Highlightsलोगों का यह भी कहना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग का कई बार सकारात्मक असर भी होता है.कुल मिलाकर 48 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला हुआ है.सच में ऐसी आपदाओं का फर्जी डर तो नहीं दिखाया जा रहा है.

Climate change: दुनिया में ऐसा मानने वालों की कोई कमी नहीं है जो कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) और बढ़ते वैश्विक तापमान (ग्लोबल वॉर्मिंग) सिर्फ हवा-हवाई बातें हैं. इनका हौवा खड़ा करके कुछ पर्यावरणवादी संगठन और गरीब देश अपने लिए धन ऐंठते हैं. हाल में अमेरिका के दोबारा निर्वाचित हुए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प तो ऐसे ही तर्क देकर जलवायु परिवर्तन थामने वाली पेरिस संधि से बाहर भी हो चुके हैं. इसके अलावा कुछ लोगों का यह भी कहना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग का कई बार सकारात्मक असर भी होता है.

इसका एक उदाहरण इधर उत्तराखंड में देखने को मिल रहा है, जहां नीति घाटी में तेजी से बढ़ते एक हिमनद (ग्लेशियर) का पता चला है. भारत-तिब्बत सीमा के नजदीक स्थित नीति घाटी में पाए गए इस हिमनद की लंबाई वैसे तो 10 किलोमीटर है, लेकिन यह कुल मिलाकर 48 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला हुआ है.

हाल तक उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और सिक्किम आदि में हिमनदों के पिघलने और पहले के मुकाबले उनके सिकुड़ने और गायब हो जाने की खबरें आती रही हैं. ऐसे में तेजी से बढ़ते ग्लेशियर की सूचना से जलवायु परिवर्तन से जुड़े वे सवाल फिर उठ खड़े हुए हैं कि कहीं सच में ऐसी आपदाओं का फर्जी डर तो नहीं दिखाया जा रहा है.

या फिर नुकसान करने की बजाय यह परिवर्तन या तो पृथ्वी के वातावरण में संतुलन बनाने के लिए होता है. जहां तक उत्तराखंड में प्रकाश में आए हिमनद की बात है, तो इसका पता देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के भूवैज्ञानिकों ने उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों और अन्य संबंधित तकनीकों के जरिए लगाया है.

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुतारेस बयान दे चुके हैं कि हमारी पृथ्वी गंभीर किस्म की जलवायु अराजकता की ओर बढ़ रही है. गुतारेस यह चेतावनी तक दे चुके हैं कि इन विचित्र घटनाओं के मद्देनजर मानव सभ्यता के पास ‘सहयोग करने या खत्म हो जाने’ का विकल्प ही बचा है.

ऐसे में ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने के लिए या तो कठोर जलवायु सहयोग संधि करनी होगी या एक सामूहिक आत्महत्या संधि. यह भी अजब विडंबना है कि पिछले चार-पांच दशकों में धरती की सेहत में कोई सुधार नहीं हुआ, जबकि इस दौरान इससे संबंधित आह्वान लाखों बार किए जा चुके हैं.

क्यों नहीं, अरबों-खरबों के खर्च के बावजूद वे कोशिशें रंग लाती दिखीं, जिन पर अमल होने से धरती माता के स्वास्थ्य में उल्लेखनीय सुधार आ जाना चाहिए था. यूं तो इस अवधि में दुनिया में धरती की सेहत यानी पर्यावरण संबंधी मामलों को लेकर लोगों में जागरूकता आई है और उनकी जानकारी का स्तर बढ़ा है. लेकिन ऐसी जानकारी किस काम की जो हमें सिर्फ मां का हाल जानने तक सीमित रखे, उसे बुखार में देखकर भी उसके कष्टों के इलाज का कोई प्रबंध न करे.

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