हेमधर शर्मा
नववर्ष की पूर्वसंध्या नजदीक आ गई है. चंद घंटों बाद ही नया साल दस्तक दे देगा, जिसके स्वागत की तैयारियां जोर-शोर से जारी हैं. होटल, पब, रेस्तरां- सब बुक हो चुके हैं और आधी रात को बारह बजते ही सेलिब्रेशन का सैलाब उमड़ पड़ेगा. लेकिन ‘नए साल की नई सुबह’ का क्या होगा? कितने लोग मुंह-अंधेरे उठकर उगते सूरज को देख पाएंगे? हाल ही में बेंगलुरु में एमडी ड्रग्स की तीन फैक्ट्रियां पकड़े जाने की खबर सामने आई और 55 करोड़ रुपए का ड्रग्स बरामद किया गया. इसके एक दिन पहले 26 दिसंबर को मुंबई में 35 करोड़ की ड्रग्स पकड़े जाने की खबर थी.
यह शोध का विषय हो सकता है कि नववर्ष की पूर्वसंध्या पर हम में से अधिकांश लोग किस तरह से नए साल के आगमन का जश्न मनाते हैं, लेकिन आंकड़े दिखाते हैं कि शराब की बिक्री इस अवसर पर अन्य दिनों की तुलना में कई गुना बढ़ जाती है. आज के उपभोक्तावादी युग में उत्सव का अर्थ हम भले ही मौज-मस्ती समझते हों,
लेकिन हमारे पूर्वजों की नजर में ये खुद को निर्मल और पवित्र बनाने के अवसर होते थे. भारतीय संस्कृति में व्रत-उपवास का अनन्य महत्व है और प्रकृति से सामंजस्य बिठाकर जीवन जीने को प्राथमिकता दी गई है. शोध बताते हैं कि सुबह की हवा बहुत स्वास्थ्यवर्धक होती है और तड़के उठने वाले आमतौर पर देर से उठने वालों की तुलना में ज्यादा तंदुरुस्त रहते हैं.
अभी कुछ दशक पहले तक प्राय: सभी घरों में बड़े-बुजुर्गों द्वारा बच्चों को सुबह जल्दी उठकर पढ़ाई करने के लिए प्रेरित किया जाता था. देर से उठने वालों के लिए कहावत थी, ‘चार घड़ी तक फूहड़ सोवैं...’ ऐसा नहीं है कि आज बच्चे पढ़ाई नहीं करते, कई विद्यार्थी तो रात-रात भर जागकर पढ़ते हैं और फिर दोपहर या देर सुबह तक सोते हैं.
इसका फल भी उन्हें मिलता है, लेकिन तन-मन के लिए सुबह उठने के जो फायदे हैं, क्या वे उससे वंचित नहीं रह जाते? हमारे पूर्वज हजारों (या लाखों!) वर्षों तक रात में जल्दी सोने और सुबह जल्दी उठने (रात में जागने वालों को ‘निशाचर’ कहा जाता था) के अभ्यस्त रहे हैं और हमें उनकी वही जैविक घड़ी विरासत में मिली है.
आज हम उस घड़ी को अपनी अराजकता से अस्त-व्यस्त कर देते हैं और फिर डॉक्टर के पास जाकर शिकायत करते हैं कि ‘नींद क्यों रात भर नहीं आती!’ भारत शुरू से ही आस्तिकों का देश रहा है (हालांकि नास्तिकता का भी यहां पूरा सम्मान था और लोकायत/चार्वाक जैसे भौतिकवादी दर्शन अस्तित्व में रहे हैं). अगर हमारे पूर्वजों ने सुबह उगते सूर्य को अर्घ्य देने को शुभ माना तो इसके पीछे स्वास्थ्यगत कारण भी थे.
क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे अधिकांश देवी-देवता पहाड़ों, दुर्गम स्थलों पर ही क्यों निवास करते हैं? इसके पीछे सोच थी कि जब परिश्रम करके लोग वहां तक जाएंगेे तो उन्हें स्वास्थ्य लाभ तो स्वयमेव हो जाएगा! व्रत-उपवास की उपयोगिता क्या आज के इन वैज्ञानिक अध्ययनों के निष्कर्ष से भी सिद्ध नहीं होती है कि पेट को एक निश्चित अंतराल पर आराम देना फायदेमंद होता है!
पहले लोग उत्सवों या त्यौहारों का सदुपयोग अपनी सद्प्रवृत्तियों को पोषित करने के लिए करते थे. दुर्भाग्य से आज हम उनका दुरुपयोग अपनी कुप्रवृत्तियों को खाद-पानी देने के लिए कर रहे हैं. जाम टकराकर एक-दूसरे की अच्छी सेहत की कामना करना या शैम्पेन की बोतल खोलकर जश्न मनाना भारतीय संस्कृति कभी नहीं थी.
हम तो तड़के ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान-ध्यान करने की परम्परा के वाहक रहे हैं. अब तो वैज्ञानिक तौर पर भी यह साबित हो चुका है कि ध्यान करने से घबराहट, बेचैनी और डर कम होता है, याददाश्त बेहतर होती है और दिमाग का संतुलन बढ़ता है. कड़कड़ाती ठंड में सुबह-सुबह ठंडे पानी से नहाने वाले जानते हैं कि नहाने के पहले पानी से कितना भी डर लगे लेकिन नहाने के बाद का सुख अनुपम होता है.
अभी भी शायद देर नहीं हुई है, नए साल की नई सुबह होने में पूरा एक दिन बाकी है; तो क्यों न हम भी बना लें योजना और चल पड़ें किसी तीर्थ (या पर्यटन) स्थल की ओर, नए सूर्य की नवकिरणों का साक्षी बनने! और कुछ नहीं तो कम से कम सुबह उठकर स्नान-ध्यान के बाद अपने घर की छत पर तो हम उगते सूर्य को अर्घ्य देकर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित कर ही सकते हैं (बदले में वह तत्काल विटामिन डी देता है)!
और तब हमें महसूस होगा कि नए साल की नई सुबह (हैंगओवर से) अलसाई हुई नहीं है, बल्कि उल्लास से भरपूर है और हम कह उठेंगे कि ‘सूरज की पहली किरणों में, कुछ आज नयापन झलका है/कुछ नई ताजगी चेहरों पर, कुछ गुलशन महका-महका है!’