मुन्नाभाई की बदनामी और शॉ का विडंबना भरा विनोद?

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: September 23, 2025 05:20 IST2025-09-23T05:20:52+5:302025-09-23T05:20:52+5:30

कुलीन पितृ परिवार के बावजूद तंगी ने शॉ को विडंबनाभरी विनोदप्रियता, हाजिरजवाबी और लाजवाब समझ बख्शी, जिसने किसी को नहीं बख्शा.

Munnabhai's infamy and Shaw's ironic humor wit and excellent understanding blog sunil soni | मुन्नाभाई की बदनामी और शॉ का विडंबना भरा विनोद?

सांकेतिक फोटो

Highlights20 नवंबर 1906 को रॉयल कोर्ट थिएटर में मंचन हुआ, तो उसे लिखे चार साल बीत चुके थे और प्रकाशित होने में 1909 आ गया.स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे आयरलैंड के डबलिन से नौजवान शॉ 1873 में जब लंदन आए.औद्योगिक क्रांति ब्रिटेन की राजधानी को भीड़ से भर चुकी थी और दुष्परिणाम पूरे यूरोप में सफेद प्लेग यानी टीबी और टाइफाइड फैला चुके थे.

सुनील सोनी

‘मुन्नाभाई’ जिन फर्जीवाड़ों के लिए बदनाम होकर मुहावरा बन गया है, उसकी कसक शायद राजकुमार हिरानी के मन में जरूर होगी. यह अफसोस भी कि कैसे व्यवस्था के चरित्र के चीरफाड़ की कहानी कहनेवाले किरदार की ‘चरित्र हत्या’ हो गई. व्यंग्य में विनोद की सान चढ़ी तीखी धार से काटनेवाली कलम को भोथरा करने का नुस्खा सत्तातंत्र को खूब आता है. लेकिन, मशहूर होते-होते ‘जॉर्ज’ नाम छोड़ चुके बर्नार्ड शॉ ने तंत्र की आंख में कलम घोंपी. कुलीन पितृ परिवार के बावजूद तंगी ने शॉ को विडंबनाभरी विनोदप्रियता, हाजिरजवाबी और लाजवाब समझ बख्शी, जिसने किसी को नहीं बख्शा.

जब ‘द डॉक्टर्स डिलेमा’ का 20 नवंबर 1906 को रॉयल कोर्ट थिएटर में मंचन हुआ, तो उसे लिखे चार साल बीत चुके थे और प्रकाशित होने में 1909 आ गया. स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे आयरलैंड के डबलिन से नौजवान शॉ 1873 में जब लंदन आए, तब तक औद्योगिक क्रांति ब्रिटेन की राजधानी को भीड़ से भर चुकी थी और दुष्परिणाम पूरे यूरोप में सफेद प्लेग यानी टीबी और टाइफाइड फैला चुके थे.

यही लाइलाज बीमारी उनकी बड़ी बहन एलिनोर एग्नेस को निगल गई. एग्नेस के अचानक चले जाने की पीड़ा का अक्स उन्होंने घोर दुर्गति में जी रही जनता में पाया, तो भाषा के महारथी की कलम से निकली ‘डॉक्टर की दुविधा.’ इस पीड़ा के स्रोत नाटक के मार्फत चिकित्साजगत में व्याप्त प्रतिद्वंद्विता एवं लालच तक पहुंचे, तो वह महान साहित्य बन गया.

शॉ का संक्रमण से लगाव यहीं नहीं रुकता, ‘हाऊ दीज डॉक्टर्स लव वन एनादर’ और ‘टू ट्रू टू बी गुड’ तक चलता जाता है. बीसवीं सदी के आरंभ में ‘डॉ. ऑलमोस्ट राइट’ के नाम से ख्यात एल्मरॉथ राइट मानव शरीर में बैक्टीरिया के हमले, जवाब और उपचार पर मित्र बर्नार्ड से लगातार बात, बल्कि सावर्जनिक बहस भी कर रहे थे.

वे टाइफाइड का टीका बनाने में जुटे थे, जो 1902 में जब अंतिम चरण में पहुंचा, तब तक शॉ का नाटक रचा जा चुका था. हालांकि, उसका मुख्य पात्र डॉ. कोलेंसो रिजंस ‘टीबी’ का इलाज खोजता है; और केवल 10 व्यक्तियों को ही बचा सकता है. एक और प्रियजन को बचाने से पैदा दुविधा के बहाने चिकित्साजगत को शॉ बेनकाब कर देते हैं.

रोग के बारे में पता लगने की तीन सहस्राब्दियों बाद भी तब टीबी का उपचार नहीं था और 19वीं सदी में यूरोप में चौथाई आबादी उसकी भेंट चढ़ गई, जिसने मृत्यु को भयावह खौफ में तब्दील कर दिया. 1882 में डॉ. राॅबर्ट कोच को सिर्फ इतना पता चला कि माइकोबैक्टीरियम इसका कारण है, इलाज नहीं मिला. संयोग ही था कि ‘दुविधा’ के मंचन से ऐन पहले इस जर्मन सूक्ष्मजीवाणुविज्ञानी को चिकित्सा का नोबल मिला.

96 वर्ष के होकर दुनिया को अलविदा कहने तक तकरीबन सात दशक में 60 से ज्यादा अद्भुत नाटक रचते रहे घोर मानवतावादी शॉ अब भी शेक्सपियर के बाद सबसे महान नाटककार माने जाते हैं. दुनियाभर की घुमक्कड़ी और राजनीति में सक्रिय दिलचस्पी ने उन्हें मशहूर और बदनाम किया. 1933 में जब शॉ ‘एम्प्रेस ऑफ ब्रिटेन’ से ‘बॉम्बे’ पहुंचे, तो भारतीय कुलीन उन्हें देखने-मिलने को उमड़ पड़े.

लेकिन उनकी दिलचस्पी सिर्फ एक आदमी में थी. महात्मा गांधी. मुंबई में वे मिल नहीं पाए, पर दो साल पहले लंदन में जिस जगह वे मिले थे, वहां गद्देदार कुर्सी में बैठना गांधीजी को रास नहीं आ रहा था. शॉ ने तुरंत कहा, ‘‘क्या आप घर की तरह जमीन पर नहीं बैठेंगे?’’ गांधीजी ने हामी भरी और फिर दोनों जमीन पर बैठ गए. दिल-दिमाग दोनों मिले तो वे जिंदगीभर दोस्त रहे.

संगठित धर्म के आलोचक शॉ में करुणा भाव कभी कम नहीं होता. जब वे खुद को अनीश्वरवादी कहते हैं, तो उनकी सबसे बड़ी चिंता आमजन ही हैं. मुंबई में वसंत विजय मिल्स के हीरालाल शाह के अनुरोध पर वे पायधुनी और वाल्केश्वर के जैन मंदिरों में संगमरमर की प्रतिमाएं देखते हैं, तो कला की सराहना किए बिना नहीं रहते.

इसी करुणा से वे दुनिया को एहसास करवाते हैं कि इंग्लैंड में भी छुआछूत है, जो जाति के बजाय वर्ग से आती है, पर क्षेपक लगाना नहीं भूलते कि ‘‘अंग्रेज, भारतीयों की तरह दलितों की छाया तक से तो नहीं बचते.’’ अंग्रेजी वर्णमाला में सुधार और महिलाओं के वोटिंग राइट की पक्षधरता यहीं से आती है.

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