एक ऐसी दुनिया में, जो अक्षरश: महामारी से तबाह हो चुकी है, बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने रोजगार खो दिया है, राष्ट्र गंभीर मंदी के गर्त में चले गए हैं, कई उद्योग दिवालिया हो गए हैं और छात्र ऑनलाइन शिक्षा पर निर्भर रहने को मजबूर हैं. स्वस्थ अर्थव्यवस्थाएं भी चरमरा रही हैं.
यह भविष्यवाणी करना बहुत मुश्किल है कि आने वाला समय कैसा होगा. हो सकता है ऐसी कोई बीमारी लंबे समय तक दुबारा न आए. लेकिन इस महामारी के ही निशान बहुत लंबे समय तक बने रहेंगे, जिसे लोगों के रहन-सहन में, सरकारों के कामकाज में, उद्योग-धंधों में और हर चीज में महसूस किया जा सकेगा.
ऐसे कठिन दौर में सरकारों को क्या करना चाहिए? जाहिर है कि उन्हें अपने हर नागरिक को रोजगार उपलब्ध कराने का प्रयास करना होगा. लेकिन क्या यह संभव है?
दुनिया भर में मंदी गहराने के साथ ही बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है. अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष का अनुमान है कि कई देशों में लागू किए गए सख्त लॉकडाउन के गंभीर आर्थिक परिणाम होंगे. तो क्या हम मंदी की आहट को सुन रहे हैं? क्या हम ऐसे कर्मचारियों को नहीं देख रहे हैं जो कम वेतन में भी काम करने को तैयार हैं?
मंदी की शुरुआत के साथ, व्यवसायी लागत में वृद्धि का सामना कर रहे हैं और उनकी आवक कम हो रही है. इससे उनके सामने या तो कर्ज लेने का विकल्प है या फिर कर्मचारियों की संख्या कम करके लागत घटाने का. एक साथ कई उद्योगों में छंटनी किए जाने से बेरोजगारों की संख्या अचानक बढ़ गई है. जबकि आर्थिक विकास के लिए रोजगार में वृद्धि की जरूरत है.
आंकड़े बताते हैं कि भारत में 7.5 लाख नौकरियों का सृजन होने से जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में एक प्रतिशत की वृद्धि होती है. सरकार को सार्वजनिक कार्यो, सड़कों और पुलों के निर्माण पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि उनसे सर्वाधिक रोजगार पैदा होता है. मनरेगा को पूरी ईमानदारी से लागू किया जाए तो यह एक प्रभावी श्रम कानून और सामाजिक सुरक्षा उपाय है जो ‘काम के अधिकार’ की गारंटी देता है.
सरकार को कोविड-19 से निपटने के साथ ही जमीनी समस्याओं पर भी ध्यान देना होगा, क्योंकि इसमें कोई भी देरी देश को मंदी की खाई में गहरे तक गिरा सकती है.