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अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः असंगठित क्षेत्र की आय बढ़ाने से सुधरेगी अर्थव्यवस्था

By अभय कुमार दुबे | Updated: August 20, 2020 06:06 IST

प्रोफेसर अरुण कुमार ने बताया है कि इस समय हमारी अर्थव्यवस्था की वृद्धि-दर पांच या आठ न हो कर एक फीसदी के करीब पहुंचने के बाद अब नकारात्मक हो चुकी है.  बेरोजगारी और कृषि की समस्या के पीछे यही नकारात्मक वृद्धि है, क्योंकि मांग बुनियादी तौर पर असंगठित क्षेत्र से ही आएगी जहां 94 फीसदी रोजगार है.

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स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण ‘फील गुड’ से भरा हुआ था. उनकी ध्वनि थी ‘हम सब एक हैं और भविष्य उज्‍जवल है.’ जो भी हो, प्रधानमंत्री ने जो कहा, उसका खंडन किए बिना या उसकी आलोचना किए बिना राजनीतिक समीक्षकों को उन बातों को रेखांकित करने की कोशिश करनी चाहिए, जिन्हें प्रधानमंत्री ने नहीं कहा. मसलन, कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने पिछले दिनों एक लंबी चर्चा में खेतिहर क्षेत्र की जिन समस्याओं को पेश किया था- हमें प्रधानमंत्री की दावेदारियों के बरक्स उन्हें सामने रखना चाहिए. अर्थशास्त्री अरुण कुमार पिछले कुछ महीनों से लगातार भारतीय आर्थिक संकट के जिन पहलुओं पर प्रकाश डालते आ रहे हैं, हमें उनकी पुन: अभिव्यक्ति करनी चाहिए.

प्रोफेसर अरुण कुमार ने बताया है कि इस समय हमारी अर्थव्यवस्था की वृद्धि-दर पांच या आठ न हो कर एक फीसदी के करीब पहुंचने के बाद अब नकारात्मक हो चुकी है.  बेरोजगारी और कृषि की समस्या के पीछे यही नकारात्मक वृद्धि है, क्योंकि मांग बुनियादी तौर पर असंगठित क्षेत्र से ही आएगी जहां 94 फीसदी रोजगार है. वहां से चलकर यह समस्या कृषि में भी आ गई, वहां भी आमदनी गिर गई तो उससे समस्या और बढ़ गई. समस्याएं हल इसलिए नहीं हो रहीं क्योंकि सरकार का सारा ध्यान संगठित क्षेत्र पर है. 

सरकार कह रही है कि हम डिजिटाइजेशन करेंगे, इनफॉर्मल को फॉर्मल कर देंगे. इससे असंगठित क्षेत्र की समस्या और बढ़ती है. सरकार का पूरा ध्यान औपचारिक क्षेत्र और औपचारिकीकरण पर है, लेकिन उससे कुछ हल नहीं होने वाला. समाधान असंगठित क्षेत्र की आय बढ़ाने से निकलेगा. वरना मांग में इजाफा नहीं होगा. चूंकि उद्योगों की स्थापित क्षमता का पहले से ही उपयोग नहीं हो पा रहा है इसलिए निवेश कम है. राजकोषीय घाटा पहले ही नौ फीसदी के आसपास था, अभी 1.76 लाख करोड़ रिजर्व बैंक से लिया. उसके बावजूद राजकोषीय घाटा 11 फीसदी के करीब पहुंच रहा है. अगर उसे यह राजकोषीय गुंजाइश (फिस्कल स्पेस) बढ़ानी थी तो दो-ढाई लाख करोड़ कॉरपोरेट सेक्टर को न देकर असंगठित क्षेत्र पर खर्च करती ताकि उससे मांग में उछाल आता.

अरुण कुमार के इन अकाट्य तर्को के बाद अब देविंदर शर्मा की बातों पर नजर डालना जरूरी है. वे गांव की एक ऐसी महिला के उदाहरण से बात शुरू करते हैं जिसके पास कुछ नहीं है. वह एक बकरी लेना चाहती है. बकरी के लिए वह कर्ज लेती है, तो वह कहां से मिलेगा. दस हजार या सात-आठ हजार के लिए ऋण लेना है तो बैंक देगा नहीं. तो, वह एमएफआई (माइक्रो फाइनेंस इंस्टीट्यूशंस) के पास जाती है और उसे बकरी के लिए 26 फीसदी की ब्याज दर पर पैसा मिलता है. क्या 26 प्रतिशत ब्याज पर सशक्तिकरण होता है. उसे हर हफ्ते के हिसाब से कर्ज चुकाना है. यानी तकरीबन-तकरीबन 60 प्रतिशत की ब्याज दर पड़ी. अगर उस महिला को आपने 0.1 प्रतिशत ब्याज दर पर पैसा दिया गया होता, तो वह भी साल के अंत में कार चलाती दिखती.

किसानों की आत्महत्या के कारणों का विेषण करते हुए डॉ. शर्मा बताते हैं कि मौसम खराब हुआ, किसान की फसल खराब हुई, वह अपनी बर्बादी देखता है, उसे झटका लगता है, वह मर जाता है. क्या कारण है? ऐसा क्यों होता है? सत्तर के दशक में गेहूं का समर्थन मूल्य 76 रु. प्रति क्विंटल था. 45 साल बाद 2015 में बढ़कर 1450 रु. प्रति क्विंटल हो गया. यानी उन्नीस गुना. जो सरकारी नौकरी वाले हैं उनकी बेसिक आय और डीए इस दौरान 120-150 गुना बढ़ा. 

इसी दौरान जो प्रोफेसर हैं उनकी आय में 150-170 गुना वृद्धि हुई. स्कूल टीचर की आय 280-320 गुना बढ़ी. कॉरपोरेट्स की आमदनी 300 से 1000 गुना तक बढ़ी. लेकिन किसान की केवल 19 गुना बढ़ी. अगर किसान की आय या मूल्य को उसी औसत से बढ़ाया गया होता और अगर हम कम से कम उसे सौ गुना भी मान लें, तो उसका जो हक बनता था, 1990 से 2015 में, वह था 7600 रुपए प्रति क्विंटल जबकि उसको मिला है 1450 रुपए तो वह किसान क्यों नहीं मरेगा? मैं एक बार फिर कह रहा हूं कि प्रधानमंत्री की बातों की आलोचना करना मेरा मकसद नहीं है. मेरा मकसद भारतीय यथार्थ के उन पहलुओं को सामने लाना है जिन्हें उनके भाषण में जगह नहीं मिली.

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