जी-20 पर रार जारी, वैश्वीकरण की जगह लेता आक्रामक राष्ट्रवाद
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: December 10, 2025 05:42 IST2025-12-10T05:42:13+5:302025-12-10T05:42:13+5:30
बहुपक्षीय मंच सिद्धांतों पर आधारित नहीं, विशेषाधिकार चालित हैं, और ये विशेषाधिकार राष्ट्रवादी नेताओं की मजबूत पकड़ में हैं

file photo
प्रभु चावला
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बहुपक्षवाद पर हमला बोलने के लिए जी-20 के संपन्न हो जाने का भी इंतजार नहीं किया. उनके इस ऐलान को, कि दक्षिण अफ्रीका को मियामी में होने वाले जी-20 के आगामी शिखर सम्मेलन में आमंत्रित नहीं किया जाएगा, न तो कूटनीतिक चिंता के रूप में देखा जा सकता है, न आगामी सम्मेलन को कुशलता से संपन्न करने की योजना के तौर पर, और न रणनीतिक आशंका के रूप में. ट्रम्प ने अपने मुंहफट अंदाज से इसकी भी कलई खोली कि वैश्विक प्रशासन का स्थापत्य कितना खोखला हो चुका है.
उन्होंने याद दिलाया कि बहुपक्षीय मंच सिद्धांतों पर आधारित नहीं, विशेषाधिकार चालित हैं, और ये विशेषाधिकार राष्ट्रवादी नेताओं की मजबूत पकड़ में हैं. ट्रम्प का वह ऐलान प्रिटोरिया के लिए सिर्फ अपमानजनक नहीं था, वह जी-20 पर एक आरोप भी था. ट्रम्प की गर्वोक्ति ने याद दिलाया कि इन वैश्विक मंचों की सदस्यता अंतरराष्ट्रीय नियम या साझा मूल्यों पर तय नहीं होती.
ऐसे मंच सबसे शक्तिशाली राष्ट्रीय नेताओं के आभामंडल से चालित होते हैं. और अगर अमेरिका यह फैसला लेता है कि दक्षिण अफ्रीका वैश्विक साझेदारों की उसकी परिभाषा में फिट नहीं बैठता, तो बहुपक्षीय एकता का मुखौटा उतर जाता है. फिलहाल जी-20 का मुखौटा उतर गया है- यानी यह समान देशों का संगठन नहीं है,
बल्कि ऐसा संगठन है, जिसके अतिथियों की सूची अपनी इच्छा से संशोधित की जा सकती है. जोहान्सबर्ग में ऐसा ही हुआ. वहां स्पष्ट हुआ कि बहुपक्षवाद भंगुर होने के साथ वैश्विक नेताओं के एकतरफा रवैये पर भी निर्भर है. देश अब वैश्विक संरचनाओं की शुचिता के बारे में नहीं सोचते. वे अपने राष्ट्रीय हितों की चिंता करते हैं. शिखर सम्मेलनों में गैरमौजूदगी, नौकरशाही द्वारा की गई उपेक्षा और आलंकारिक बनावट के कारण जो बहुपक्षवाद दशकों से कमजोर हो रहा था, वह अब शक्तिशाली राष्ट्रवाद के शिकंजे में है. जोहान्सबर्ग में हुए शिखर सम्मेलन को ग्लोबल साउथ की विजय माना जा रहा था,
क्योंकि पहली बार यह अफ्रीकी धरती पर हो रहा था. यह उस महादेश को महत्व दिए जाने का ऐतिहासिक अवसर था, जो वैश्विक अर्थव्यवस्था और राजनीति में अपने योगदान के कारण विश्व मंच पर मजबूत उपस्थिति की मांग करता आ रहा था. दक्षिण अफ्रीका ने शिखर सम्मेलन के लिए एक उद्देश्यपूर्ण एजेंडा भी तैयार किया था,
जिनमें जलवायु, न्याय, गरीब देशों के कर्ज का पुनर्गठन, वैश्विक वित्तीय सुधार, ऊर्जा क्षेत्र के रूपांतरण और आर्थिक एकता जैसे मुद्दे थे. इसके बावजूद शिखर सम्मेलन वाशिंगटन के बहिष्कार और मियामी में दक्षिण अफ्रीका को न बुलाए जाने के ट्रम्प के अहंकारी बड़बोलेपन में गर्क हो गया. आज वैश्विक शिखर सम्मेलन आलंकारिक ही ज्यादा हैं, वे ठोस परिणाम नहीं देते.
ऐसे सम्मेलन राजनीतिक उत्सवों की तरह हैं, जो भाषण, सांस्कृतिक प्रदर्शनियों, दोतरफा मेल-मुलाकातों और प्रतिबद्धताओं का मिला-जुला रूप होते हैं. इनमें नेतागण आते हैं, प्रभावी तरीके से फोटो खिंचवाते हैं, भोजन करते हैं, फिर विदा हो जाते हैं. जोहान्सबर्ग में संपन्न सम्मेलन बहुपक्षवाद के खात्मे का ताजा उदाहरण था, पर वैश्विक स्थापत्य में लगी सड़ांध कहीं ज्यादा स्पष्ट है.
जरा उन 60 अंतरराष्ट्रीय संस्थानों पर विचार कीजिए, जिनका दुनिया भर में डंका बजता रहा है. यूनेस्को, डब्ल्यूटीओ, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, डब्ल्यूएचओ, यूएनडीपी, यूएन हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजीस, आईएमएफ और विश्व बैंक जैसे वैश्विक संगठनों के साथ संयुक्त राष्ट्र दशकों से अस्तित्व में है.
इन संस्थाओं को दिशानिर्देश देने वालों में रिटायर्ड नौकरशाहों, राजनयिकों, शिक्षाशास्त्रियों तथा पराजित या सत्ता से बाहर हुए राजनेताओं की जमात है. इन लोगों को जीवनभर करमुक्त वेतन और पेंशन की सुविधा प्राप्त है. पर दुनिया जिन संकटों से गुजर रही है, उसके हल में इनका योगदान नगण्य है. संयुक्त राष्ट्र का गठन वैश्विक शांति बहाली के अभिभावक के रूप में किया गया था,
पर पिछली आधी सदी के लगभग तमाम विवादों के हल में यह विफल रहा है. सुरक्षा परिषद शीतयुद्ध काल से ही पंगु है. डब्ल्यूटीओ आज विवादों के निपटारे का तंत्र भर रह गया है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन श्रमिकों के अधिकारों के लिए प्रशंसनीय प्रस्ताव लाता है, पर उस पर कहीं अमल नहीं होता. यूनेस्को विरासतों से जुड़े प्रस्ताव पारित करता है, जबकि सांस्कृतिक विध्वंस का काम जारी है.
इसी शून्य में राष्ट्रवाद उभर रहा है. दुनियाभर के नेता वैश्विक जिम्मेदारी पर राष्ट्रीय हितों को वरीयता देने के वादे पर चुने जाते हैं. वे सीमाओं को बंद करने, उद्योगों की सुरक्षा करने और वैश्विक प्रतिबंध के विरोध में संप्रभुता के नारे की बात करते हैं. चाहे वह अमेरिका फर्स्ट हो या ब्रिटेन फर्स्ट, इटली फर्स्ट हो या इंडिया फर्स्ट- इन सबका संदेश स्पष्ट है-बहुपक्षवाद भले ही आदर्शों की बात करता हो,
पर राष्ट्रवाद सत्ता दिलाता है. मतदाता उन नेताओं को वोट नहीं देते, जो वैश्विक उदारता की बातें करते हैं. ऐसे में, जी-20 पर ट्रम्प के विचार बहुत चौंकाने वाले नहीं हैं. और इस मामले में सिर्फ ट्रम्प को दोष देने का औचित्य भी नहीं है. दुनिया के सभी नेता राष्ट्रवाद की राह पर चल पड़े हैं. सुरक्षा समझौते अब वैश्विक स्तर पर होने के बजाय क्षेत्रीय अथवा मुद्दों पर आधारित हो रहे हैं.
दुनिया एक निर्णायक, नए चरण में प्रवेश कर रही है. ऐसे में, वैश्विक सहयोग और तालमेल के लिए नए व उद्देश्यपूर्ण संस्थानों का निर्माण किया जाए, जो कि अब भी मुमकिन है. यदि ऐसा नहीं होता है, तो सभी देश सीधी बातचीत और द्विपक्षीय संबंध बनाने की कूटनीति को प्राथमिकता देंगे. फैली हुई वैश्विक नौकरशाही के दौर का अंत आ चुका है.
इसने अपनी साख, क्षमता और सहमति खो दी है. यदि विश्व व्यवस्था का पुनर्निर्माण होता है तो यह काम जमीनी स्तर पर और ऐसे संस्थानों के जरिये होना चाहिए, जिनके पास अधिकार, अनुभव और शक्ति हो. वैश्विक संकट के हल के लिए स्पष्टता, तात्कालिकता और पारदर्शिता चाहिए.