Donald Trump: ट्रम्प के कार्यकाल में भारत से रिश्तों की गुत्थियां

By राजेश बादल | Updated: January 22, 2025 14:22 IST2025-01-22T14:21:11+5:302025-01-22T14:22:05+5:30

Donald Trump: उम्र के इस पड़ाव पर उनके लिए खुद को बदलना उतना ही कठिन है, जितना अमेरिका को विश्व पंचायत का चौधरी बनाए रखना.

Donald Trump Problems in relations with India during Trump's tenure blog rajesh badal | Donald Trump: ट्रम्प के कार्यकाल में भारत से रिश्तों की गुत्थियां

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Highlightsसबसे पहले अपने ऊपर मंडरा रहे अतीत के प्रेत से मुकाबला करना होगा और यह काम कोई बहुत आसान नहीं है.गंभीर समस्याओं और चुनौतियों का विकराल गुच्छा है, जिसे सुलझाने के लिए उन्हें खुद को बदलना पड़ेगा. ट्रम्प बुनियादी तौर पर कट्टर पूंजीपति हैं. लोकतंत्र से उनका संबंध राष्ट्रपति निर्वाचित होने तक ही है.

Donald Trump: डोनाल्ड ट्रम्प अब विधिवत अमेरिका के मुखिया बन गए हैं. हारकर जीतने वाले संभवतया वे पहले राष्ट्रपति होंगे. उन्होंने पद पर बैठते ही 78 फैसले लिए हैं. यह निर्णय इशारा करते हैं कि ट्रम्प पिछले राष्ट्रपतियों से इस बार भिन्न पारी खेलने के मूड में हैं. यकीनन वे स्वयं को एक ऐसे चक्रवर्ती राष्ट्रपति के रूप प्रस्तुत करना चाहेंगे जो अमेरिकी इतिहास में लंबे समय तक याद किया जाए. लेकिन क्या सब कुछ डोनाल्ड ट्रम्प के अनुकूल है? शायद नहीं. उन्हें सबसे पहले अपने ऊपर मंडरा रहे अतीत के प्रेत से मुकाबला करना होगा और यह काम कोई बहुत आसान नहीं है.

उनके समक्ष गंभीर समस्याओं और चुनौतियों का विकराल गुच्छा है, जिसे सुलझाने के लिए उन्हें खुद को बदलना पड़ेगा. उम्र के इस पड़ाव पर उनके लिए खुद को बदलना उतना ही कठिन है, जितना अमेरिका को विश्व पंचायत का चौधरी बनाए रखना. यह छिपा नहीं है कि ट्रम्प बुनियादी तौर पर कट्टर पूंजीपति हैं. लोकतंत्र से उनका संबंध राष्ट्रपति निर्वाचित होने तक ही है.

कारण यह भी है कि लोकतंत्र और पूंजीतंत्र के बीच आपस में नहीं बनती. लोकतंत्र जन कल्याण की बात करता है और पूंजी तंत्र में व्यक्ति सिर्फ अपने स्वार्थ  साधता है. आपको याद होगा कि पहले कार्यकाल में भारत से संबंध मधुर होते हुए भी ट्रम्प ने भारत की जन कल्याण योजनाओं का मखौल उड़ाया था.

उन्होंने लोकतंत्र में लोक कल्याण को भी सिक्कों से तौला था और कहा था कि हिंदुस्तान जितना अफगानिस्तान में अस्पताल, पुस्तकालय और स्कूल खोलने पर खर्च करता है, उतना तो अमेरिका एक घंटे में उड़ा देता है. जब ट्रम्प विशुद्ध कारोबारी थे तो सियासत से घृणा करते थे. वे पहली पारी खेलने आए तो बराक ओबामा की यश पूंजी अमेरिका के साथ थी.

डोनाल्ड ट्रम्प को उससे आगे देश को ले जाना था. लेकिन वे ऐसा कर नहीं पाए. ओबामा का सैद्धांतिक और नैतिक आधार डोनाल्ड ट्रम्प से अधिक मजबूत था. मुल्क के लोगों के बीच उनके कथन के सच की प्रतिष्ठा डोनाल्ड ट्रम्प के झूठ के पहाड़ से भी बहुत ऊंची थी. इसलिए ट्रम्प का कद बराक ओबामा से अत्यंत निचले पायदान पर है.

क्या यह वैश्विक मंच पर उपहास की बात नहीं है कि अमेरिका के सर्वाधिक प्रतिष्ठित अखबार ने ट्रम्प के असत्य कथनों पर कई पन्नों का प्रामाणिक दस्तावेज प्रकाशित किया था. रिकॉर्ड के मुताबिक डोनाल्ड ट्रम्प ने पूरे कार्यकाल में प्रतिदिन 21 के हिसाब से 21500 से अधिक झूठ बोले. इस वजह से पत्रकार उनके कटु आलोचक बने रहे.

कोई भी सुसंस्कृत लोकतंत्र सामूहिक नेतृत्व, सच्चाई और ईमानदारी के आवश्यक तत्वों से मिलकर बनता है. डोनाल्ड ट्रम्प में इन तीनों का अभाव है. इसीलिए संसार के सबसे धनाढ्य गणतंत्र की जड़ें आठ बरस से निरंतर सूख रही हैं. ट्रम्प के झूठ के कारण बाद में यूरोपीय संघ के राष्ट्र ही उनसे कन्नी काटने लगे थे. दूसरे कार्यकाल में वे प्रतिशोधी राष्ट्रपति के रूप में हैं.

जो बाइडेन के 78 नीति विषयक निर्णयों को एक झटके में रद्द करना उनके इस रवैये का पारिणाम है. यह बहस का विषय हो सकता है कि अपनी पार्टी के पराजित होने के बाद जो बाइडेन ने गंभीर नीति विषयक निर्णय लिए थे. इनके पीछे की स्पष्ट मंशा यह थी कि डोनाल्ड ट्रम्प जब सत्तानशीन हों तो उनके लिए सरकार चलाना कठिन हो जाए और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में अमेरिका की किरकिरी हो.

मसलन डोनाल्ड ट्रम्प प्रचार अभियान में कह चुके थे कि गद्दी पर बैठते ही चौबीस घंटे के भीतर वे रूस और यूक्रेन के बीच जंग रोक देंगे. वे खुलकर रूस का समर्थन कर रहे थे और यूक्रेन विरोधी थे. वे तो यहां तक कह चुके थे कि यूक्रेन अब उन इलाकों को भूल जाए, जो रूस ने जीत लिए हैं. इसके उलट बाइडेन ने पराजय के बाद यूक्रेन को ऐतिहासिक फौजी और वित्तीय मदद बढ़ा दी.

अब डोनाल्ड ट्रम्प को राष्ट्रपति बने चौबीस घंटे बीत चुके हैं और वे जंग नहीं रोक पाए हैं. जाहिर है बाइडेन कागजों पर कुछ ऐसा कर गए हैं, जो ट्रम्प के लिए पलटना मुश्किल है. हकीकत यह भी है कि यूरोपीय संघ और नाटो के देश रूस की खुलेआम सहायता करने की ट्रम्प की नीति से प्रसन्न नहीं होंगे. क्या डोनाल्ड ट्रम्प यूरोपीय मित्रों को नाराज करने का जोखिम मोल लेंगे?

असल में ट्रम्प ने पदभार संभालते ही कूटनीतिक गलतियां शुरू कर दी हैं. कायदे से दूसरे कार्यकाल में डोनाल्ड ट्रम्प को भारत को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए थी. भारत रूस का पक्षधर रहा है. बाइडेन के तमाम दबावों के बावजूद रूस से कच्चा तेल खरीदना बंद नहीं किया. भारत ने अपने सामरिक हितों के मद्देनजर यह निर्णय लिया था.

वह चीन, रूस और पाकिस्तान से एक साथ बैर मोल नहीं ले सकता था. रूस के साथ रहने पर चीन से तनाव होने की स्थिति में वह रूस के जरिये चीन पर दबाव बना सकता था. ऐसी स्थिति में ट्रम्प को रूस के साथ-साथ भारत की दोस्ती बोनस में मिल सकती थी. पर उन्होंने भारत को शपथ समारोह में न्यौता देने के बजाय उस चीन को निमंत्रित किया, जिसको उन्होंने कोविड फैलाने के लिए जिम्मेदार ठहराया था.

चीन के राष्ट्रपति ने अपनी जगह प्रतिनिधि को भेज दिया. क्या ट्रम्प के लिए यह उचित नहीं होता कि वह अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी चीन की घेराबंदी के लिए भारत और रूस जैसे मित्र देशों का साथ लेते. लेकिन ट्रम्प ने व्यक्तिगत अहं के चलते ऐसा किया. शायद उन्हें याद रहा कि क़्वाड की बैठक के लिए अमेरिका गए भारतीय प्रधानमंत्री उनसे मिले नहीं थे. इसका उन्हें बुरा लगा था.

इसी कारण उन्होंने प्रचार अभियान में इस बार मोदी का सहारा नहीं लिया और हिंदू कार्ड खेला. अंतिम बात. पाकिस्तान से अमेरिकी पींगों का लंबा अतीत है. हरदम वह पाकिस्तान को पर्दे के पीछे सहायता करता रहा है. एकाध अपवाद को छोड़कर. जब अमेरिकी फौजों को अफगानिस्तान से लौटना था तो तालिबान से गुपचुप वार्ताओं के दरम्यान भारत की उपेक्षा की गई थी और पाकिस्तान को ट्रम्प ने सिर पर बिठाया था. इसीलिए कहा जाता है कि अमेरिकी किसी के सगे नहीं होते. भारत को यह ध्यान रखना होगा.

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