भरत झुनझुनवाला का ब्लॉग: चीन के साथ व्यापार समझौते पर जनमत संग्रह हो

By भरत झुनझुनवाला | Published: November 3, 2019 10:27 AM2019-11-03T10:27:01+5:302019-11-03T10:27:01+5:30

यदि सभी पार्टियां इस प्रकार का व्यवहार करें तो जनता के सामने ऐसे व्यक्तियों के बीच में चयन करने का विकल्प मात्न रहता है जो विभिन्न तरीकों से जनता के निर्देशों के विपरीत कार्य करते हैं.

Bharat Jhunjhunwala blog: Referendum on trade deal with China | भरत झुनझुनवाला का ब्लॉग: चीन के साथ व्यापार समझौते पर जनमत संग्रह हो

भरत झुनझुनवाला का ब्लॉग: चीन के साथ व्यापार समझौते पर जनमत संग्रह हो

हमारे लोकतंत्न में व्यवस्था है कि जनता द्वारा प्रतिनिधि चुने जाएंगे और वे जनता के निर्देशानुसार संसद में अपने मत डालेंगे. इस प्रकार संसद द्वारा जनता की इच्छा के अनुरूप निर्णय लिए जाएंगे. लेकिन ऐसा होना जरूरी नहीं होता है. कारण यह कि जनप्रतिनिधि अपने व्यक्तिगत स्वार्थो अथवा अपनी पार्टी के स्वार्थो के आधार पर संसद में मत डाल सकते हैं और उसी जनता के निर्देशों को नकार सकते हैं जिसके द्वारा उन्हें चुना गया है. 

यदि सभी पार्टियां इस प्रकार का व्यवहार करें तो जनता के सामने ऐसे व्यक्तियों के बीच में चयन करने का विकल्प मात्न रहता है जो विभिन्न तरीकों से जनता के निर्देशों के विपरीत कार्य करते हैं. जनप्रतिनिधि और जनता के बीच में एक विशाल खाई बन गई है जिसे हमारा लोकतंत्न पार नहीं कर पा रहा है.

यह समस्या विश्व के तमाम देशों में देखी गई है. इंग्लैंड में तीन वर्ष पहले सवाल उठा था कि इंग्लैंड को यूरोपियन यूनियन का हिस्सा बने रहना चाहिए या उससे बाहर आ जाना चाहिए. उस समय सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी ने इस विवाद को समाप्त करने की दृष्टि से जनमत संग्रह कराने का निर्णय लिया. 

उन्होंने माना कि विषय इतना गंभीर है कि इस पर सांसदों द्वारा स्वयं निर्णय लेना उचित नहीं है. जनता क्या चाहती है इसे समझने की जरूरत है. कंजर्वेटिव पार्टी यूरोपियन यूनियन में बनी रहने के पक्ष में थी और उन्हें पूरा भरोसा था कि जनमत उनकी तरफ निर्णय देगा. लेकिन जनमत में लगभग 52 प्रतिशत लोगों ने यूरोपियन यूनियन से बाहर आने का निर्णय दिया. इस प्रकरण से पता लगता है कि जनता और जनप्रतिनिधियों के बीच में खाई कितनी गहरी हो सकती है.
इस समस्या पर स्विट्जरलैंड में गहरा विचार हुआ है. 

पहले स्विट्जरलैंड में तमाम जिले थे जिन्हें कैंटन कहा जाता था. ये कैंटन स्वतंत्न थे. इनमें निर्णय जनता से सीधे चर्चा के माध्यम से लिए जाते थे. कैंटन के नेताओं को जब निर्णय लेना होता था तो वे कैंटन के सभी लोगों को आमंत्रित करते थे और एक जनसभा में सामूहिक निर्णय लिए जाते थे जिससे जनता की इच्छा के अनुरूप ही निर्णय होता था. इसके बाद समय क्रम में एक राष्ट्रीय शासन व्यवस्था बनाई गई क्योंकि तमाम ऐसे विषय उत्पन्न हो गए जिन्हें कैंटन के स्तर पर सुलझा पाना संभव नहीं था जैसे विदेशी नीति अथवा मुद्रा. 

इसलिए स्विट्जरलैंड में एक राष्ट्रीय सरकार का गठन किया गया. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर देश के सभी नागरिकों को बुलाकर सामूहिक चर्चा करना संभव नहीं था. इसलिए वहां पर जनप्रतिनिधि की व्यवस्था की गई जैसी कि अपने देश में है. लेकिन साथ-साथ जनमत संग्रह की भी व्यवस्था जारी रखी गई. वहां वर्तमान व्यवस्था यह है कि यदि राष्ट्रीय संसद समझती है कि कोई विषय गूढ़ अथवा दीर्घकालीन प्रभाव वाला है तो सरकार जनमत संग्रह कराती है. 

विशेष यह कि यदि बड़ी संख्या में लोग चाहते हैं कि किसी विषय पर जनमत संग्रह कराया जाए अथवा बड़ी संख्या में लोग समझते हैं कि सरकार की नीति उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं है तो वे सरकार को बाध्य कर सकते हैं कि उस विषय विशेष पर जनमत संग्रह कराया जाए. आज स्विट्जरलैंड में दोनों व्यवस्थाएं समानांतर चलती हैं.  

अपने देश में वाजपेयी सरकार ने संविधान समीक्षा आयोग बनाया था. आयोग ने तमाम सुझाव दिए, उसमें एक सुझाव यह था कि विश्व व्यापार संगठन (अथवा डब्ल्यूटीओ) जैसी संधियों को बिना संसद में चर्चा के प्रशासनिक स्तर पर दस्तखत करने का सरकार को हक नहीं होना चाहिए. उसने आगाह किया था कि डब्ल्यूटीओ जैसी संधि का जनता पर गहरा और दीर्घकालीन प्रभाव होता है. आयोग की चिंता आज हमारे सामने स्पष्ट दिख रही है. 

इस संधि के कारण आज हम मुक्त व्यापार को अपनाने को बाध्य हैं जिसके कारण चीन में बना सस्ता माल देश में प्रवेश कर रहा है; और जिसके कारण भारत के अमीर अपनी पूंजी समेत विदेश को पलायन कर रहे हैं; और जिसके कारण विदेशी निवेशक आकर भारत में लाभ कमाकर हमारी पूंजी को विदेश ले जा रहे हैं. इसी कारण आज विश्व व्यापार संधि का संपूर्ण विश्व में विरोध हो रहा है. मैं समझता हूं कि आयोग के इस विचार को और आगे बढ़ाने की जरूरत है.

डब्ल्यूटीओ की तर्ज पर इस समय सरकार चीन की अगुवाई में एक और मुक्त व्यापार संधि करने पर विचार कर रही है जिसे रीजनल कॉम्प्रेहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) का नाम दिया गया है. इस संधि को लागू करने के लिए 4 नवंबर को पूर्वी एशियाई देशों का शिखर सम्मेलन होने जा रहा है जिसमें हमारे प्रधानमंत्नी भाग लेंगे. 

आरसीईपी लागू होने पर भारत को चीन से आयातित होने वाले अधिकांश माल पर 100 प्रतिशत कर छूट देनी होगीे. चीन से माल के आयात से वर्तमान में ही हमारे उद्योग दबाव में हैं और रोजगार का क्षरण हो रहा है. आयात कर शून्य कर देने के बाद हमारा टिकना कठिन हो जाएगा. अत: सरकार को चाहिए कि आरसीईपी पर जनमत संग्रह कराने के बाद ही कोई निर्णय ले. यह लेख लिखते समय तक सरकार ने आरसीईपी पर अंतिम निर्णय नहीं लिया था.

अपने देश में जरूरत है कि ब्रिटेन और स्विट्जरलैंड की तर्ज पर हम भी जनमत संग्रह की स्थायी व्यवस्था लागू करें. सर्वोत्तम यह होगा कि हर वर्ष विपक्ष द्वारा एक प्रस्ताव बनाया जाए जिस पर देश की संपूर्ण जनता अपना मत प्रदान करे. ऐसा करने से जिन विषयों पर सरकार जनता के विपरीत चल रही है, उन्हें विपक्ष द्वारा उठाया जा सकेगा और सरकार को अपनी चाल बदलनी होगी. सरकार बाध्य होगी कि जनता के निर्णय के अनुसार कार्य करे.
 

Web Title: Bharat Jhunjhunwala blog: Referendum on trade deal with China

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