पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: संगीत के अनूठेपन ने उन्हें अलग कलाकार बनाया

By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: August 21, 2019 05:59 AM2019-08-21T05:59:57+5:302019-08-21T05:59:57+5:30

70 के दशक के शायरों की पूरी पीढ़ी ही इस गीत को गुनगुनाते बड़ी हो गई.  दरअसल खय्याम हर लिहाज से एक स्वतंत्न, विचारवान और स्वयं को संबोधित ऐसे आत्मकेंद्रित संगीतकार रहे हैं जिनकी शैली के अनूठेपन ने ही उनको सबसे अलग किस्म का कलाकार बनाया.

Punya Prasun Vajpayee's blog: The uniqueness of music made him a different artist | पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: संगीत के अनूठेपन ने उन्हें अलग कलाकार बनाया

पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: संगीत के अनूठेपन ने उन्हें अलग कलाकार बनाया

न तो सियासत में सुकून, न ही सिनेमा में सुकून, न तो संगीत में सुकून. आपकी हथेलियों में धड़कते मोबाइल और दिलों में कौंधते विचार ही जब जल्दबाजी में सबकुछ लुटा देने पर आमादा हों तब आप कौन सा गीत और किस संगीत को सुनना पसंद करेंगे. 

यकीनन भागती दौड़ती जिंदगी में आपको सुकून गंगा, गांधी और गीत में ही मिलेगा. और इन तीनों के साथ एक इत्मीनान का संगीत ही आपको किसी दूसरी दुनिया में ले जाएगा और इस कड़ी में नाम कई होंगे लेकिन कोहिनूर तो मोहम्मद जहूर खय्याम हाशमी उर्फ खय्याम ही है जिनका ताल्लुक संगीत की उस जमात से रहा है जहां इत्मीनान और सुकून के साये तले बैठकर संगीत रचने की रवायत रही है. खय्याम का नाम किसी फिल्म के साथ जुड़ने का मतलब ही यह समझा जाता था कि फिल्म में लीक से हटकर और शोर-शराबे से दूरी रखने वाले संगीत की जगह बनती है.

फेहरिस्त यकीनन लंबी है, लेकिन इस लंबी फेहरिस्त में से कोई भी चार लाइनें उठा कर पढ़ना शुरू  कीजिए, चाहे अनचाहे आपके दिल-दिमाग में संगीत बजने लगेगा और यही संगीत खय्याम का होगा. खय्याम यूं ही खय्याम नहीं बन गए. सहगल के फैन. मुंबई जाकर हीरो बनने की चाहत. लाहौर में संगीत सीखने का जुनून और फिर इश्क में सबकुछ गंवाकर संगीत पाने का नाम ही खय्याम है. 

खय्याम के इश्क में गोते लगाने से पहले सोचिए खय्याम संगत दे रहे हैं और पत्नी गीत गा रही है. और बोल हैं, ‘तुम अपना रंज-ओ-ग़म, अपनी परेशानी मुङो दे दो..’ 

खय्याम के जीवन में उनकी पत्नी जगजीत कौर का बहुत बड़ा योगदान रहा जिसका जिक्र  करना वो किसी मंच पर नहीं भूलते थे. अच्छे खासे अमीर सिख परिवार से आने वाली जगजीत कौर ने उस वक्त खय्याम से शादी की जब वो संघर्ष कर रहे थे. मजहब और पैसा कुछ भी दो प्रेमियों के बीच दीवार न बन सका. यहां खय्याम को याद करते-करते जिक्र जगजीत कौर (पत्नी) का जरूरी है क्योंकि संगीत में संयम और ठहराव का जो जिक्र  अपने कानों में खय्याम के गूंज रहा है वह जगजीत के बगैर संभव नहीं हो पाता. 

व्यक्तिगत तौर पर खय्याम साहब की पत्नी जगजीत कौर खुद भी बहुत उम्दा गायिका रही हैं. अगर आपने न सुना हो ये नाम तो फिर उनकी आवाज में फिल्म बाजार का नगमा ‘..देख लो आज हमको जी भरके..’  या फिर फिल्म उमराव जान में ‘..काहे को ब्याहे बिदेस..’ सुनते हुए आपकी आंखों से आंसू टपक जाएंगे और एक इंटरव्यू में खय्याम साहब ने जिक्र  भी किया कि संगीत देते वक्त वह भावुक नहीं हुए लेकिन पत्नी की आवाज ने जिस तरह शब्दों को जीवंत कर दिया उसे सुनते वक्त वह रिकार्डिग के वक्त ही रो पड़े. 

लेकिन खय्याम के पीछे संगीत में संगत देने के लिए हर वक्त मौजूद रहने वाली जगजीत ने फिल्मों के गीतों को गाने को लेकर न तो जल्दबाजी की, न ही गीतकारों में अपनी शुमारी की. सिर्फ सुकून भरे संगीत के लिए खय्याम के साथ ही खड़ी रहीं. इसका बेहतरीन उदाहरण ‘उमराव जान’ और ‘कभी-कभी’ का संगीत है. और कल्पना कीजिए साहिर की कलम, मुकेश की आवाज उस पर खय्याम का संगीत.. यहां याद आता है ‘कभी-कभी’ का गीत - ‘मैं पल दो पल का शायर हूं..’ 

70 के दशक के शायरों की पूरी पीढ़ी ही इस गीत को गुनगुनाते बड़ी हो गई.  दरअसल खय्याम हर लिहाज से एक स्वतंत्न, विचारवान और स्वयं को संबोधित ऐसे आत्मकेंद्रित संगीतकार रहे हैं जिनकी शैली के अनूठेपन ने ही उनको सबसे अलग किस्म का कलाकार बनाया. लेकिन ये सब इतनी आसानी से हुआ नहीं क्योंकि उनके परिवार का फिल्म या संगीत से कोई वास्ता ही नहीं था. उल्टे परिवार में कोई इमाम तो कोई मुअज्जिन. 

18 फरवरी 1927 को पंजाब में जन्मे खय्याम पर नशा के.एल. सहगल का, लेकिन असफलता ने पहुंचाया लाहौर बाबा चिश्ती (संगीतकार गुलाम अहमद चिश्ती) के पास. जिनके ़फिल्मी घरानों से खूब ताल्लुकात थे. लाहौर तब फिल्मों का गढ़ हुआ करता था.   1947 में ‘हीर रांझा’ से खय्याम का सफर शुरू होता है. फिर ‘रोमियो जूलियट’ जैसी फिल्मों में संगीत दिया और गाना भी गाया. लेकिन सबसे बेहतरीन वाकया है कि राजकपूर 1958 में जब फिल्म ‘फिर सुबह होगी’ बनाते हैं तो वह ऐसे शख्स को खोजते हैं जिसने उपन्यास क्राइम एंड पनिशमेंट पढ़ी हो. क्योंकि फिल्म इसी उपन्यास से प्रेरित या कहें आधारित थी. 

खय्याम ने ये किताब पढ़ रखी थी तो राजकपूर उनसे ही संगीत निर्देशन करवाते हैं. खय्याम ने 70 और 80 के दशक में एक से बढ़कर एक गाने दिए. ये शायद उनके करियर का गोल्डन पीरियड था. याद कीजिए इस गोल्डन दौर का एक गीत- ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता..’ 

1981 में इस गीत को संगीत खय्याम ने ही दिया. क्या कहें, खय्याम की तरह का संगीत रचने वाला कोई दूसरा फनकार नहीं हुआ या फिर उनकी शैली पर न तो किसी पूर्ववर्ती संगीतकार की कोई छाया पड़ती नजर आती है न ही उनके बाद आने वाले किसी संगीतकार के यहां खय्याम की शैली का अनुसरण ही दिखाई पड़ता है. 

तो क्या अब सुकून और ठहराव की मौत सिल्वर स्क्रीन पर हो चुकी है. पर आधुनिक तकनीक के दौर में गीत-संगीत कहां मरेंगे..मौका मिले तो अकेले में कभी इस गीत को सुनिये ‘..ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है..’ फिर सोचिए कोई अकेला और स्वतंत्न संगीतकार अपने भीतर क्या कुछ समेटे रहा है जो अंदर तो हिलोरें मारता है लेकिन बाहर अजब सा ठहराव संजीदगी के साथ देता है.

Web Title: Punya Prasun Vajpayee's blog: The uniqueness of music made him a different artist

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