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कोविड-19 : क्या नकली समाचार वास्तव में लोगों के व्यवहार को बदलते हैं

By भाषा | Updated: June 30, 2021 17:24 IST

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सियारा ग्रीन, यूनिवर्सिटी कॉलेज डबलिन

डबलिन, 30 जून (द कन्वरसेशन) ‘‘कोविड-19 के प्रसार का कारण 5जी मोबाइल नेटवर्क है।’’, ‘‘कोविड-19 कीटाणुओं को पकड़ने के लिए अपने कमरे के कोने में आधा कटा प्याज रख दें।’’, ‘‘धूप वाला मौसम आपको कोविड-19 से बचाता है।’’

कोविड महामारी से जुड़ी ये फर्जी खबरें और इनके जैसी और कई खबरें महामारी के शुरूआती दौर में सोशल मीडिया पर तेजी से फैल रही थीं। गलत सूचनाओं की लहर इतनी तेज थी कि अधिकारियों ने इसके लिए एक शब्द गढ़ा: ‘‘इन्फोडेमिक’’।

फेक न्यूज कोई नई बात नहीं है। लेकिन हाल के वर्षों में सोशल मीडिया के बढ़ते प्रसार के साथ साथ फेक न्यूज में लोगों की दिलचस्पी तेजी से बढ़ी है। 2016 में इस बात पर ध्यान दिया गया कि ब्रेक्सिट जनमत संग्रह और अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव अन्य देशों द्वारा फैलाई गई गलत सूचना से प्रभावित हो सकते हैं।

यह माना जाता है कि फेक न्यूज का लोगों के व्यवहार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, यह दावा किया गया है कि नकली समाचार लोगों की मास्क पहनने, टीका लगवाने या अन्य सार्वजनिक स्वास्थ्य दिशानिर्देशों का पालन करने की इच्छा को प्रभावित कर सकते हैं। फिर भी, आश्चर्यजनक रूप से, वस्तुतः किसी भी शोध ने इस धारणा का प्रत्यक्ष परीक्षण नहीं किया है, इसलिए मैंने और मेरे सहयोगियों ने यह मापने की चुनौती ली कि वास्तव में लोगों के व्यवहार पर नकली समाचारों का क्या प्रभाव पड़ता है।

मई 2020 में, हमने आयरिश समाचार वेबसाइट ‘दजर्नलडॉटआईई’ पर एक लेख के माध्यम से एक ऑनलाइन अध्ययन के लिए 4,500 से अधिक प्रतिभागियों को शामिल किया। प्रतिभागियों को बताया गया कि अध्ययन का उद्देश्य ‘‘कोरोना वायरस के प्रकोप से जुड़े सार्वजनिक स्वास्थ्य संदेशों और संबंधित समाचारों पर प्रतिक्रियाओं की जांच करना’’ है।

प्रत्येक व्यक्ति को महामारी के बारे में चार सच्ची खबरें और दो फर्जी खबरें (चार फर्जी खबरों की सूची में से चयनित) दिखाई गई। इन फर्जी खबरों को उस समय प्रसारित हो रहे विभिन्न समाचारों से मिलता जुलता बनाया गया था।

इनमें कहा गया था कि कॉफी पीने से कोरोनावायरस से बचाव हो सकता है, कि मिर्च खाने से कोविड-19 के लक्षण कम हो सकते हैं, कि दवा कंपनियां उस समय विकसित की जा रही एक वैक्सीन के हानिकारक दुष्प्रभावों को छिपा रही थीं, और यह कि आयरलैंड की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा द्वारा जारी की जाने वाली आगामी संपर्क-खोज ऐप को कैंब्रिज एनालिटिका से जुड़े लोगों द्वारा विकसित किया गया है।

इन समाचारों को पढ़ने के बाद, प्रतिभागियों ने संकेत दिया कि अगले कई महीनों में इन समाचारों से मिली जानकारी के आधार पर कार्रवाई करने की कितनी संभावना है, जैसे कि अधिक कॉफी पीना या संपर्क-खोज ऐप डाउनलोड करना।

हमने पाया कि फर्जी खबरों से लोगों के व्यवहार में बदलाव तो आया, लेकिन नाटकीय रूप से ऐसा नहीं हुआ। उदाहरण के लिए, जिन लोगों को संपर्क-खोज ऐप के साथ गोपनीयता संबंधी चिंताओं के बारे में फर्जी कहानी दिखाई गई थी, वे उन लोगों की तुलना में यह ऐप डाउनलोड करने के 5% कम इच्छुक थे, जिन्होंने इस खबर को नहीं पढ़ा था।

ऐसे प्रभाव छोटे थे और वे हर फर्जी खबर के साथ नहीं होते थे। लेकिन छोटे प्रभाव भी बड़े बदलाव ला सकते हैं। एमएमआर वैक्सीन और ऑटिज्म के बीच संबंध के बारे में निराधार चिंताओं के कारण 2000 के दशक की शुरुआत में बच्चों के टीकाकरण की दरों में अपेक्षाकृत कम गिरावट आई - लगभग 10% - लेकिन इसके कारण खसरे के मामलों में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई। इसलिए यह संभव है कि अपने अध्ययन में हमने जो फेक न्यूज के छोटे-छोटे प्रभाव देखे, उनका लोगों के स्वास्थ्य पर बड़ा प्रभाव पड़ सकता है।

हालांकि, विचार करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण बिंदु हैं। सबसे पहले, हमने काम करने के लिए लोगों के इरादों को मापा, न कि उन्होंने जो वास्तव में किया। इरादे हमेशा कार्यों में तब्दील नहीं होते हैं - उदाहरण के लिए, अधिक स्वस्थ खाने या अधिक व्यायाम करने की आपकी पिछली योजनाओं पर विचार करें। हालांकि, अगर लोग अपने व्यवहार को बदलने का इरादा भी नहीं रखते हैं, तो वास्तव में ऐसा करने की संभावना बहुत कम है, इसलिए इरादों को मापना एक महत्वपूर्ण पहला कदम है।

दूसरा, हमारा अध्ययन सिर्फ एक बार नई बनी-बनाई कहानियों को पढ़ने वाले लोगों पर आधारित था। वास्तविक दुनिया में, लोगों को सोशल मीडिया पर कई बार नकली समाचार मिल सकते हैं। एक ही फर्जी खबर के बार-बार सामने आने से उसपर विश्वास करने की संभावना बढ़ सकती है। इसलिए नकली समाचारों को बार-बार देखने के प्रभावों की और अधिक जांच की आवश्यकता है।

चेतावनियों का बहुत कम प्रभाव पड़ा

हमारे अध्ययन का एक अन्य उद्देश्य गलत सूचनाओं के बारे में सामान्य चेतावनियों के प्रभावों को देखना था, जैसे कि सरकारों और मीडिया संगठनों द्वारा साझा की गई। ये चेतावनियां आम तौर पर लोगों को ऑनलाइन जानकारी के बारे में गंभीर रूप से सोचने और साझा करने से पहले सोचने के लिए प्रोत्साहित करती हैं।

इस विषय पर भी बहुत अधिक शोध नहीं हुआ है। हम केवल एक अध्ययन के बारे में जानते थे जिसने यह देखा था कि क्या इस प्रकार की सामान्य चेतावनियों का प्रभाव लोगों के गलत सूचना स्वीकार करने या नहीं करने के रूप में पड़ता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि, उस अध्ययन में शामिल लोगों को पता था कि वे नकली समाचारों पर शोध में भाग ले रहे थे, जिससे शायद वे जो देख रहे थे उसके बारे में उन्हें और अधिक संदेह हो।

हमारे शोध में, कुछ प्रतिभागियों को सही और फर्जी खबरों को पढ़ने से पहले एक सामान्य गलत सूचना चेतावनी पढ़ने के लिए कहा गया। हैरानी की बात यह है कि हमने पाया कि चेतावनी पढ़ने से फर्जी खबरों के प्रति लोगों की प्रतिक्रियाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। सरकारों को अपनी फेक न्यूज रणनीतियों पर विचार करते समय इस बारे में सोचना चाहिए: फेक न्यूज का प्रभाव अपेक्षा से कम हो सकता है, किसी भी चेतावनी का प्रभाव भी कम हो सकता है।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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