मोहर्रम पर विशेष: करबला की त्रासदी को सार्वभौमिक और अमर बनाने वाली हज़रत ज़ैनब बिंते अली
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: June 28, 2025 21:15 IST2025-06-28T21:14:25+5:302025-06-28T21:15:29+5:30
Muharram Special: अर्थ यह है कि मृत्यु हमारे प्रियजनों को हमसे अलग नहीं करती, बल्कि हम स्वयं उन्हें भूलकर, उनकी स्मृतियों को भुलाकर, उनसे दूर हो जाते हैं।

मोहर्रम पर विशेष: करबला की त्रासदी को सार्वभौमिक और अमर बनाने वाली हज़रत ज़ैनब बिंते अली
“Our dead are never dead to us until we have forgotten them: they can be injured by us, they can be wounded; they know all our penitence, all our aching sense that their place is empty, all the kisses we bestow on the smallest relic of their presence.”
— George Eliot
उपरोक्त विचार अंग्रेजी उपन्यास ‘एडम बीड’ से उद्धृत हैं, जिसे मैरी एन इवांस (साहित्यिक नाम: जॉर्ज ईलियट) ने उन्नीसवीं सदी के नवें दशक में लिखा था। इसका हिंदी अनुवाद इस प्रकार है:
"हमारे मृतक हमारे लिए तब तक नहीं मरते जब तक कि हम उन्हें भूल नहीं जाते: वे हमसे घायल हो सकते हैं, हमसे चोटिल हो सकते हैं; वे हमारे सारे पश्चाताप, हमारे हृदय की वेदना, उनके चले जाने से उपजी रिक्तता, और उनकी छोटी-छोटी निशानियों पर हमारे द्वारा किए गए चुम्बनों को जानते हैं।"
अर्थ यह है कि मृत्यु हमारे प्रियजनों को हमसे अलग नहीं करती, बल्कि हम स्वयं उन्हें भूलकर, उनकी स्मृतियों को भुलाकर, उनसे दूर हो जाते हैं। मृत्यु के पश्चात शोक मनाना संसार की स्थापित सामाजिक परंपराओं में से एक है। शोक-प्रदर्शन का देशज रूप ‘बैन करना’ या ‘मातम मनाना’ है। अरबी और फ़ारसी में इसे ‘अज़ादारी’ या ‘ताज़ियत’ कहा जाता है और शोक मनाने वाले को ‘अज़ादार’।
मुहर्रम इसी मातम या शोक-प्रदर्शन का पर्याय है। सत्य और असत्य के मध्य चलने वाले संघर्ष में, मानवीय इतिहास में हज़रत इमाम हुसैन का करबला में दिया गया बलिदान सबसे महान बलिदानों में से एक है। किंतु क्या आपने कभी सोचा है कि मुहर्रम के महीने में हुई इस त्रासदी का विवरण हम तक कैसे पहुँचा? इस अत्याचार पर शोक-प्रदर्शन की परंपरा हज़रत ज़ैनब ने ही आप तक पहुँचाई।
इस्लाम के शत्रुओं की योजना थी कि इस शहादत को केवल करबला तक सीमित रखा जाए, लेकिन बीबी ज़ैनब ने अपने भाई हज़रत हुसैन की शहादत के मिशन को केवल आशूरा के दिन तक सीमित नहीं रहने दिया। उन्होंने अपनी आँखों के सामने अपने परिवार—जिसमें वृद्ध, महिलाएँ और दुधमुँहे बच्चे भी थे—की नृशंस हत्या देखी, परंतु हताश होकर हार नहीं मानी।
उन्होंने बचे हुए बंदियों की अगुआई की, जिसमें एकमात्र जीवित पुरुष अली सज्जाद ज़ैन अल आबदीन, 20 स्त्रियाँ और वृद्ध बच्चे शामिल थे। 28 दिनों की कठिन, दयनीय और अकल्पनीय यात्रा के दौरान, जब उन्हें बेड़ियों में जकड़कर, बिना काठी के ऊँटों पर दमिश्क ले जाया गया, हज़रत ज़ैनब रास्ते में मिलने वाले लोगों को करबला की घटना और हुसैन के संदेश को विलाप के रूप में सुनाती रहीं।
दमिश्क के दरबार में, जहाँ यज़ीद ने अपने अपराधों को न्यायोचित ठहराने और स्वयं को महिमामंडित करने के लिए सभा सजाई थी, हज़रत ज़ैनब ने अपनी वाग्मिता और साहस से यज़ीद के प्रयासों को विफल कर दिया। उन्होंने अपनी वाणी से यज़ीद के पाखंड का पर्दाफाश किया।
बीबी सकीना की काल-कोठरी में मृत्यु और वहीं दफनाए जाने के बाद, लोगों की सहानुभूति अहले-बैत की ओर बढ़ने लगी और संभावित विद्रोह को देखते हुए यज़ीद ने उन्हें स्वतंत्र कर क्षतिपूर्ति का प्रस्ताव दिया। हज़रत ज़ैनब ने उत्तर दिया, “यज़ीद से कहो कि वह पैग़म्बर मुहम्मद से क्षतिपूर्ति की बात करे।
हम निश्चित रूप से मदीना लौटेंगे, लेकिन पहले यज़ीद हमें एक घर उपलब्ध कराए ताकि हम दमिश्क में शहीदों के लिए शोक-समारोह आयोजित कर सकें। फिर हम शहीदों की क़ब्रों पर जाने के लिए करबला के रास्ते मदीना जाएंगे।” कुछ हिचकिचाहट के बाद यज़ीद ने शहीदों के लिए शोक-समारोह के लिए घर उपलब्ध करा दिया। यह बीबी ज़ैनब की यज़ीद पर बड़ी विजय थी।
जब घर मिला, तो बीबी ज़ैनब ने उसी शहर—जो यज़ीद की राजधानी थी—में सात दिनों तक ‘अज़ा अल-हुसैन’ की परंपरा स्थापित की। इस घर में दमिश्क की महिलाएँ अपनी संवेदनाएँ व्यक्त करने के लिए उमड़ पड़ीं। बीबी ज़ैनब उन्हें बतातीं कि किस प्रकार शहीदों को मार डाला गया, उन्हें पानी नहीं दिया गया, छोटे बच्चे कैसे तड़प रहे थे,
इमाम हुसैन ने अली असगर को शत्रुओं के समक्ष ले जाकर कुछ बूँद पानी माँगी और कैसे बच्चे को मार दिया गया। इन कहानियों ने दमिश्क की महिलाओं को इतना उद्वेलित किया कि वे चीख-चीख कर रोने लगीं और छाती पीट-पीट कर मातम करने लगीं।
इस प्रकार, यज़ीद के घर में ही बीबी ज़ैनब ने ‘अज़ा अल-हुसैन’ की नींव रखी। तब से हर मुहर्रम पर 680 ईस्वी में घटित इस त्रासदी का शोक मनाने के लिए लोग एकत्र होते हैं। इन अज़ादारियों का अर्थ हुसैनियत से प्रेम और यज़ीदियत का विरोध करना है। मौलाना मुहम्मद अली जौहर ने कहा है:
क़त्ल-ए-हुसैन अस्ल में मर्ग-ए-यज़ीद है
इस्लाम ज़िंदा होता है, हर कर्बला के बाद
करबला, जो आज इराक़ में एक स्थान है, उपरोक्त शेर में एक त्रासद रूपक के रूप में प्रयुक्त है—अर्थात् हर बड़ी त्रासदी अब ‘करबला’ के नाम से व्यंजित होती है। इसी प्रकार, इस्लाम को एक बाई-डिफॉल्ट धर्म नहीं, बल्कि एक डी-फैक्टो जीवन पद्धति के रूप में प्रस्तुत किया गया है—सच्चाई की बुराई पर विजय। सरल हिंदी में मौलाना के शेर का अर्थ है कि हुसैन की हत्या वास्तव में यज़ीद की मृत्यु है, अर्थात् उसका अंत और इस्लाम (सच्चाई) का उदय सदैव करबला जैसे बलिदान के पश्चात होता है।
इस लेख का उद्देश्य इतिहास का पुनर्लेखन या इस्लाम की बड़ाई करना नहीं है। दोनों ही बातें मेरे लिए अप्रासंगिक हैं। मूलतः मैं एक धर्म-भीरु व्यक्ति हूँ और मानता हूँ कि सभी धर्मों के मौलिक तत्व समान हैं, शेष सब दिखावा है। ‘दुकानदारी’ से मेरा तात्पर्य पूजा-पद्धतियों के अतिरिक्त धर्म के नाम पर किए जाने वाले कर्मकांडों से है। बाबा बुल्ले शाह ने कहा है:
धरमसाल धड़वाई रहंदे, ठाकुरद्वारे ठग्ग
विच्च मसीत कुसीते रहंदे आशिक रहण अलग्ग।
करबला पर नुज़हत अब्बासी की यह ग़ज़ल देखिए:
मौज-ए-दरिया के लबों पर तिश्नगी है कर्बला
रेग-ए-साहिल पर तड़पती ज़िंदगी है कर्बला
सब्र की और ज़ब्त की ये मंज़िलें हैं आख़िरी
अज़्म अहल-ए-बैत का क्या देखती है कर्बला
हक़ कभी झुकता नहीं है सर भी कट जाए अगर
ज़ेहन-ओ-दिल के वास्ते इक आगही है कर्बला
क्यूँ सकीना और ज़ैनब इस क़दर ख़ामोश हैं
दूर तक सहरा में देखो ख़ामुशी है कर्बला
मिट गया है फ़र्क़ सब फ़र्दा में और दीरोज़ में
मात दे कर रख़्श-ए-दाैराँ को चली है कर्बला
ता-क़यामत ज़िक्र से रौशन रहेगी ये ज़मीं
ज़ुल्मतों की शाम में इक रौशनी है कर्बला
ऐ ग़म-ए-शाम-ए-ग़रीबाँ ऐ शब-ए-तार-ए-अलम
अहल-ए-दिल को रोज़-ओ-शब तड़पा रही है कर्बला
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[सुहैब फा़रूकी़, दिल्ली पुलिस के सीनियर इंस्पेक्टर, एक प्रसिद्ध उर्दू शायर, हिंदी कवि, लेखक और ब्लॉगर हैं।]
