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त्रिपुराः वामपं‌थ का किला ढहाने के लिए BJP ने तैयार किया था ये 'चाणक्य', 'पन्ना प्रमुख' से हार गई CPM

By खबरीलाल जनार्दन | Updated: March 5, 2018 18:36 IST

त्रिपुरा में 25 सालों से वाम किला अभेद था। बीजेपी ने इसे चकनाचूर कर दिया। लेकिन कैसे, क्या किया, जो इस कदर लोगों ने दक्षिणपंथ को स्वीकार और वामपंथ को नकार दिया? इन सारे सवालों के जवाब हम यहां दे रहे हैं।

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ठळक मुद्देत्रिपुरा में सुनली देवधर ने वोटर लिस्ट के हर पन्ने के लिए 'पन्ना प्रमुख' चुना थाऔसतन वोटर लिस्ट के एक पन्ने पर 60 वोटरों के नाम होते थेपन्ना प्रमुख का काम था कि उन 60 लोगों के घर जाना और उनसे बात करनाआईपीएफटी से गठबंधन का आइडिया भी सुनील का था, उसने 9 में से 8 सीटें जीतीं

तीन घंटे के टी-20 क्रिकेट मैच जीतने के लिए घंटों-घंटों रणनीति बनती हैं,  जीत-हार के बाद समीक्षा होती है कि कौन सी रणनीति कारगर रही और कौन फिसड्डी। फिर किसी राज्य का विधानसभा चुनाव जीतने, अपने दल का मुख्यमंत्री बनाने के लिए राजनैतिक पार्टियां किस स्तर की तैयारियां करती होंगी, इसकी कुछ बानगी हालिया त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में हुई भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की जीत के बाद सामने आ रही हैं।

त्रिपुरा में 25 सालों से वाम किला अभेद था। इन 25 सालों में प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस का बेस्ट प्रदर्शन विधानसभा चुनाव 1998 में रहा, जब कांग्रेस 60 में 13 सीटें जीती थी। बीजेपी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2013 विधासभा चुनावों को मान सकते हैं जिनमें उसे करीब डेढ़ फीसदी वोट मिले थे, लेकिन 50 में से कोई उम्मीदवार अपनी जमानत भी नहीं बचा पाया था। इसी हार से बौखला कर बीजेपी ने त्रिपुरा में जोर लगाया।

लेकिन उन्हीं दिनों लोकसभा चुनाव आ गए। बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की साख वाराणसी में दांव पर लग गई। तब उस साख को बचाने के लिए एक शख्स को काम पर लगाया गया, 'सुनील देवधर'। शख्स ने कमाल किया हो ना किया हो, पर इतना किया कि बीजेपी के अध्यक्ष बनते ही अमित शाह ने उसके बारे में एक वाक्य कहा- 'सुनील देवधर को जंगल भेजो।'

अमित शाह के उस बयान को त्रिपुरा जीतने के बाद कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने पुख्ता किया। पीएम के अनुसार वास्तु शास्‍त्र में ऐसा लिखा गया है कि बड़ी और टिकाऊ इमारत बनाने के लिए नॉर्थ-ईस्ट के कोने का मजबूत होना आवश्यक है। उन्होंने यह भी कहा कि 'उगता सूरज केसरिया और डूबता सूरज लाल' होता है। ऐसे में लाल सलाम के सूरज को डूबोने और भगवा सूरज उगाने का दारोमदार साल 2014 में अमित शाह ने सुनील देवधर को दिया था।

त्रिपुरा में सुनील देवधर ने किया क्या

त्रिपुरा विधानसभा चुनाव 2018 के परिणाम में पता चला कि बीजेपी के उम्मीदवारों को कुल 9,99,093 वोट मिले। जबकि मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के उम्मीदवारों को 9,92,575 वोट मिले हैं। यानी कुल हुए मतदान की बात करें तो सीपीएम को बीजेपी से महज 6518 वोट (बीजेपी को 43 फीसदी और सीपीएम को 42.7 फीसदी) कम मिले

फिर महज 6518 वोट के इस अंतर ने सीटों के मामले दोगुने से ज्यादा (बीजेपी 35 सीट, सीपीएम 16 सीट) का अंतर कैसे कर दिया। इससे पहले जब कभी ऐसे चुनाव परिणाम देखने को मिले हैं तो इसे बूथ मैनेजमेंट का कमाल कहा गया। लेकिन यह बूथ मैनेजमेंट होता क्या है? ‌त्रिपुरा में बीजेपी ने कैसे बूथ मैनेजमेंट किया?

सुनील देवधर की चाणक्य नीति 1इसका जवाब सुनील देवधर ने द प्रिंट को बताया। उन्होंने बताया कि त्रिपुरा में 3,214 बूथ हैं। इसमें उन्होंने 3,209 बूथ समितियां तैयार कीं। हर बूथ पर औसतन 15-17 पेज की वोट लिस्ट थी। हर पेज पर करीब 60 वोटरों के नाम थे। उन्होंने हर पन्ने के मैनेजमेंट के लिए एक 'पन्ना प्रमुख' चुना। उसका काम था कि वह जिस पेज का पन्ना प्रमुख है, उस पेज के सभी 60 लोगों का हर रोज दरवाजा खटखटाए। उनके साथ बैठे और बातें करे।

सुनील देवधर की चाणक्य नीति 2पन्ना प्रमुखों ने पूरे त्रिपुरा की असल जानकारी सुनील देवधर तक पहुंचाई। उन्हें अंदाजा लग गया कि कहां उनके जीतने की उम्मीद हो सकती है और कहां के लोग बिल्कुल भी इसके पक्ष में नहीं हैं। जानकारी के अनुसार यहां दूसरे स्तर की रणनीति बनाई गई। जिन पन्ना प्रमुखों ने बताया कि यहां लोग बीजेपी के पक्ष में नहीं हैं, उनसे कहा गया कि वहां के हालात को समझें और यह कोशिश करें कि क्या सीपीएम के अलावा किसी विकल्प के बारे में लोग सोच रहे हैं। चुनाव नतीजों में बोगस उम्मीदवारों की सूची देखकर कुछ विश्लेषकों का कहना है कि बीजेपी ने जानबूझ कर ऐसे उम्मीदवारों को बढ़ावा दिया जो सीपीएम का वोट कांटें।

सुनील देवधर की चाणक्य नीति 3इसी तरह अगरतला से धर्मनगर जाने वाली ट्रेन हर रोज कार्यकर्ताओं का एक जत्‍था 'मोदी टी-शर्ट' जाया करता था। वह यात्रियों को अपने बुकलेट देता। उनसे बात करता। और आखिर में लौटते वक्त उनके मोबाइल नंबर लेता। औसतन रोजाना 700 नंबर मिलते। इनमें करीब 300 व्हाट्सएप पर होते। उन्हें रोजाना वीडियो, टेक्‍स्ट मैसेज भेजे जाते। जिनके नंबर व्हाट्सएप पर नहीं होते, उन्हें एसएमएस से अपनी बात भेजी जाती। वो बातें क्या होतीं, सुनील देवधर के मुंबई मिरर को दिए गए बयान से अंदाजा लगा सकते हैं। बयान नीचे है।

सुनील देवधर की चाणक्य नीति 4

एक शख्स यहां 20 सालों से मुख्यमंत्री है, लेकिन यहां की 67 फीसदी जनता गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करती है। इसका हमारे पास प्रमाण है। त्रिपुरा में करीब 67 फीसदी जनता के पास बीपीएल कार्ड हैं। जबकि करीब एक तिहाई जनता बेरोजगार है। बात प्रदेश में अपराध की करें तो इसकी दर बेहद ऊंची है। महिला से छेड़छाड़, उत्पीड़न जैसे अपराध की तो गिनती नहीं है। बांग्लादेश देश होने वाले गांजे की तस्करी लगातार बढ़ती जा रही है। यही वो वजहें हैं जिसके हमें इस सरकार के खिलाफ काम करना पड़ रहा है।- सुनील देवधर, त्रिपुरा बीजेपी के त्रिपुरा प्रभारी

सुनील देवधर की चाणक्य नीति 5ये सब करने के बाद भी सुनील देवधर ने देखा कि उनकी टीम आदिवासी इलाकों में ऐसा काम नहीं कर पाई कि जीत जाएं, तो चतुराई से उन्होंने उस पार्टी को चुना जो वहां जीत सकती है। चुनाव के ऐन पहले बीजेपी ने इंडिजिनस पीपल्स ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) के साथ गठबंधन किया। यह पार्टी नौ सीटों पर चुनाव लड़ी और 8 पर जीत दर्ज की।

सुनील देवधर की चाणक्य नीति 6बीबीसी से बात करते हुए सुनील देवधर कहते हैं, 'यहां पर कांग्रेस की छवि वैसी नहीं है जैसी बाकी के राज्यों में है। यहां इतने सालों तक कांग्रेस अकेले ही वाम दलों को चुनौती देती रही है। यहां कांग्रेस में अच्छे नेता रहे हैं। बीते सालों में लगातार मेरी कांग्रेस के कई नेताओं से उनकी मुलाकातें होती रहती थीं।' धीरे-धीरे कर के उन्होंने वहां से कुछ नाराज नेताओं को बीजेपी में शामिल करा दिया। इसके बाद कई नाराज मार्क्सवादी नेताओं को भी बीजेपी में शामिल किया। इन नेताओं ने ही पार्टी के ‌वि‌स्तार में प्रमुख भूमिका अदा की। चुनाव के ऐन पहले बीजेपी में कई दूसरी पा‌र्टियों के नेता आए थे।

क्या है सुनील देवधर की पृष्ठभूमि

सुनील देवधर मराठी हैं। पुणे में 29 सितंबर 1965 जन्मे और मुंबई से एमएससी, बीएड किए। वहीं करीब 20 साल की उम्र में सन् 1985 में शाखा में जाने लगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के लोगों ने पाया कि युवक तेज-तर्रार है। ऐसे में जिन इलाकों में आरएसएस कमजोर है, इसे वहां भेज देना चाहिए। नतीजनत उन्हें प्रचारक के तौर पर 1991 में नॉर्थ-ईस्ट भेजा गया। यहां वे प्रमुख रूप से शाखा में दंड (लाठी) भांजने की कला सिखाते। साथ ही स्‍थानीय लोगों से मेलजोल बढ़ाते। मराठा होने के बाद भी वह स्‍थानीय भाषा धीरे-धीरे बोलने लगे थे।

उनके काम काज को देखते हुए साल 1994 में उन्हें नॉर्थ-ईस्ट के प्रमुख शिलोंग प्रचारक बना दिया गया। यहां वे साल 2002 तक बने रहे। इसके बाद उन्होंने नॉर्थ-ईस्ट में सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करना शुरू किया। साल 2005 में सुनील देवधर ने 'माई होम इंडिया' नाम से एक एनजीओ बनाया। इसके जरिए वे नॉर्थ-ईस्ट के लोगों के लिए फंड इकट्ठा कर उनकी मदद करते हैं। देश के दूसरे हिस्सों को नॉर्थ-ईस्ट की समस्याओं से रूबरू कराते हैं। नॉर्थ-ईस्ट छात्रों की मदद करते हैं। इस वक्त यह इसका विस्तार नॉर्थ-ईस्ट के 65 शहरों तक हो गया है।

इसी क्रम में जब आरएसएस से आए नितिन गडकरी बीजेपी के अध्यक्ष बने तो देवधर ने उन्हें नॉर्थ-ईस्ट में संगठन के विस्तार की समस्याओं से अवगत कराया। इसके बाद गडकरी उन्हें पूरी तरह से राजनीति में ले आए। उन्हें साल 2009 में नॉर्थ-ईस्ट सेल का राष्ट्रीय संयोजक बना दिया। राजनीति में आते ही देवधर ने दिल्ली के एक ‌जिम ट्रेनर बिप्लव देव को त्रिपुरा ले आए और उसे प्रदेश अध्यक्ष का पद दिलाया। बिप्लव देव त्रिपुरा निवासी थे और देवधर से प्रभावित भी।

लेकिन 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हालत अच्छी नहीं रही। तब पार्टी बस ऊपरी तैयारी पर मैदान में कूद गई। देवधर को इसका नुकसान हुआ। उन्हें दिल्ली बुला लिया गया। साल 2013 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में उन्हें साउथ दिल्ली की जिम्मेदारी सौंप दी गई। देवधर का कमाल यहां चला, बीजेपी 10 में से सात सीटें जीतने में सफल हुई। लेकिन सरकार नहीं बना पाई।

इसके बाद देवधर को वाराणसी भेज दिया गया। वहां उन्होंने एक बार फिर से साबित किया कि उनका चुनावी कौशल शानदार है। इस‌लिए उनको अगली जिम्मेदारी साल 2014 के ही महाराष्ट्र चुनाव की दे दी गई। उनके मराठी होने और मुंबई में पढ़ाई लिखाई आदि को ध्यान में रखकर उस क्षेत्र की 32 सीटों का चार्ज दिया गया था। लेकिन अमित शाह की पारखी नजरें उनपर पड़ी। उन्होंने सुनील देवधर को महाराष्ट्र की इकलौती सीपीएम सीट पालगढ़ भेजा। इसके बाद उन्हें त्रिपुरा का प्रभारी बना दिया गया। 

फर्राटा बंगाली बोलने लगे हैं देवधर, त्रिपुरा की भाषा भी सीख डाली

साल 2014 के आम चुनावों में जब बीजेपी जीती तो अचानक एक चुनावी रणनीतिकार चर्चा में आए, प्रशांत किशोर। लेकिन वे बिजनेसमैन थे। उन्होंने अगले ही चुनाव में अधिक पैसा देने वाली पार्टियों का दामन थाम लिया। इसलिए अब बीजेपी ऐसे रणनीतिकारों की तलाश में है जो उनके अपने हों। इसमें सुनील देवधर प्रमुख हैं। वह हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी के साथ गुजराती, बंगाली, कॉकबरोक और त्रिपुरा की आदिवासी भाषा भी बोल लेते हैं।

सोशल मीडिया में उड़ी खबरें के अनुसार वे जिद्दी किस्म के आदमी हैं। उन्होंने कसम खाई थी कि जब तक त्रिपुरा नहीं जीतेंगे अपने पसंद का खाना नहीं खाएंगे।

देवधर के कुछ बयान, क्या-क्या चुकाई कीमत, कहां से हुई शुरुआत

जब मैं त्रिपुरा में आया था तो यहां शुरुआत करने के लिए भी कुछ नहीं था। जो कुछ था वह  2013 के विधानसभा चुनाव में त्रिपुरा में 50 उम्मीदवार उतारने के बाद मिले महज डेढ़ फीसदी वोट ने तबाह कर दिया था। मेरे पास बस मुट्ठीभर कार्यकर्ता थे और बस एक नेता बचा था, सुबल भौमिक (इस वक्त वे प्रदेश उपाध्यक्ष हैं)- स्वराज्य को ‌दिया गया देवधर का बयान

जब हम यहां आए हमने कई मोर्चों पर काम किए और कई मोर्चे बनाए, युवाओं के लिए अलग, महिलाओं के लिए अलग, किसानों के लिए अलग, ओबीसी लोगों के लिए अलग। त्रिपुरा में पिछड़ी जाति (ओबीसी)के लोग और आदिवासी लोग सबसे ज्यादा नजरअंदाज किए जा रहे थे। हमने उनके के लिए काम किया। मैंने उनके बीच से लोगों को चुना और पार्टी में महत्वपूर्ण पद दिए। - स्वराज्य को ‌दिया गया देवधर का बयान

जब हमारी आदिवाासी इलाके में ताकत बढ़ने लगी, सीपीएम के लोगों ने हमारे एक प्रमुख कार्यकर्ता चंद्र मोहन की हत्या करा दी। हमने इसका कड़ा विरोध किया। हमने उसकी चिता की राख लेकर प्रदेश भर में प्रदर्शन किया। तब एक दिन में 42,000से ज्यादा लोगों की गिरफ्तारियां हुईं। त्रिपुरा के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। इस घटना के बाद बड़े पैमाने पर सीपीएम के विरोध और बीजेपी के समर्थन लोग आए - स्वराज्य को ‌दिया गया देवधर का बयान

सुनील देवधर ने दिए ये स्लोगन

'चलो पटलई' (आओ सत्ता बदलें), 'त्रिपुरा तेह गोरीब मरे, मुख्या मंत्री चोपेर अ चोरे' (त्रिपुरा की गरीब जनता मर रही है और मुख्यमंत्री चॉपर में घूम रहा है) ये दोनों स्लोगन वहां बेहद हिट हुए। इनमें उन युवाओं का बहुत साथ मिला, जो मार्क्सवादी विचारधारा के खिलाफ थे। सुनील के मुताबिक सीपीएम वहां युवओं में नौकरी ना करने या बिजनेस ना करने की भावना को बढ़ावा दे रही थी, जिससे युवा उसे नाराज थे।

इससे पहले भी जीत चुके हैं त्र‌िपुरा के चुनाव

देवधर के अनुसार हमारे काम का असर साल 2015 से ही दिखना शुरू हो गया था। इससे पहले जब प्रतापगढ़ और सुरमा विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए थे तो बीजेपी कांग्रेस को दूसरे नंबर से हटाकर खुद काबिज हुई थी। इतना ही नहीं अगले साल हुए ग्राम पंचायत चुनावों में बीजेपी में जबर्दस्त प्रदर्शन किया था। तब बीजेपी ने 121 ग्राम पंचायतों में अच्छा प्रदर्शन किया था।

MY VIEW: हर बार खेल हारने के बाद कुछ लोगों पर ठिकरा फोड़ा जाता है। इससे हर आदमी भागता है। इसके उलट जीत का श्रेय लेने को सब आगे आते हैं। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह, पीएम मोदी और खुद सुनील देवधर ने जीत का श्रेय कार्यकर्ताओं को दिया। अमित शाह ने कहा कि वह नम आंखों के साथ इस जीत को उन शहीद कार्यकर्ताओं को समर्पित करते हैं जिनकी राजनीति के चलते हत्या कर दी गई। लेकिन इन सब के बीच एक बार जरूर प्रमुख नेताओं को सुनील देवधर का नाम लेना चाहिए था।

इस तरह के किसी भी बयान या ट्वीट में मुझे सुनील देवधर का नाम नहीं दिखा। ऐसे में सुनील खुद ही सामने आकर अपने बारे में बात कर रहे हैं। यह बीजेपी में सबकुछ ठीक होने का संकेत नहीं है। पीएम ने अपने हालिया भाषण में कहा, 'हमें बहुत सतर्क रहने की जरूरत है। हमारे भीतर कहीं कांग्रेस कल्चर ना घुस जाए।' बीजेपी को महज चार सालों के शासन में यह डर सताने लगा है, यह बीजेपी के लिए चिंताजनक है।

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