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करुणानिधि का मूल्यांकन कैसे करें

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: August 11, 2018 00:49 IST

करुणानिधि ने जब अंतिम सांस ली तब उन्होंने द्रमुक अध्यक्ष के तौर पर 50 साल की अवधि पार कर ली थी।

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अवधेश कुमार

यह कहना बिल्कुल सही है कि करुणानिधि के साथ तमिलनाडु की राजनीति में एक युग का अंत हो गया है। करुणानिधि के समान किसी एक नेता का इतना लंबा दौर राजनीति में कभी नहीं रहा।  करुणानिधि ने जब अंतिम सांस ली तब उन्होंने द्रमुक अध्यक्ष के तौर पर 50 साल की अवधि पार कर ली थी। 27 जुलाई, 1969 को उन्होंने पार्टी की कमान संभाली थी और 2016 में बीमार हो जाने तक वे पार्टी के सर्वप्रमुख निर्णायक रहे। हां, बीमारी की वजह से उन्होंने अपने बेटे एमके स्टालिन को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर अपने कंधों से बोझ तो कम किया लेकिन स्वयं को राजनीति से दूर नहीं किया। पांच बार मुख्यमंत्री तथा 11 बार विधायक बनना उनके जीवन की संक्षिप्त विवरणी है। वे कभी चुनाव न हारने वाले नेताओं में शुमार हैं।

70 वर्षो से भी ज्यादा जिसका सक्रिय राजनीतिक जीवन हो, 50 वर्षो तक जो प्रदेश की राजनीति का एक मुख्य स्तंभ रहा हो, उसके जाने का असर तो होना ही है। ऐसा ही दिसंबर 2016 में जे। जयललिता के जाने के बाद माना गया था। करीब ढाई दशकों तक करुणानिधि और जयललिता के इर्दगिर्द ही तमिलनाडु की पूरी राजनीति घूमती रही।करुणानिधि को अगर कलैगनार यानी कला का विद्वान कहा गया तो यह गलत नहीं है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी करुणानिधि एक नेता के अलावा लेखक, नाटककार, फिल्म पटकथा लेखक, कवि, पत्रकार भी रहे। वे भारत के पहले राजनेता हैं जिन्होंने 100 से ज्यादा पुस्तकें लिखी हैं। उनकी लेखन प्रतिभा ने उन्हें राजनीति में सबसे ज्यादा ताकत दी और महत्वपूर्ण बनाया। राजनीति में सफल होने के लिए गहरी सोच और जनता के बीच उसे उनकी भाषा में व्यक्त करने की प्रभावी शैली होनी आवश्यक है। करुणानिधि इस कसौटी पर खरे उतरते हैं।

हालांकि तमिल मुद्दों को लेकर उनके अंदर गहन विचार नहीं होता, उस दिशा में वे मुखर नहीं होते तो केवल रचनाधर्मिता उन्हें यहां तक नहीं लाती। आंदोलन और राजनीति की ओर रुझान आरंभ से ही था। हिंदी विरोधी तथा हिंदू धर्म के समस्त प्रतीकों और मान्यताओं को नकारने की तमिल धारा की ओर उनका आकर्षण करीब 14 वर्ष की उम्र में ही हो गया। जस्टिस पार्टी के अलागिरी स्वामी तब इस सोच के बड़े प्रतिनिधि थे। करुणानिधि उनके साथ जुड़ गए। द्रविड़ आंदोलन की पहली छात्र इकाई तमिल मनवर मंद्रम नाम का छात्र संगठन खड़ा करने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। इनके लिए निकाला गया अखबार मुरसोली ही आगे द्रमुक का आधिकारिक अखबार बना। उनकी तमिल फिल्म ‘परासक्ति’ उनके द्रविड़ आंदोलन संबंधी विचारों के प्रसार का महत्वपूर्ण माध्यम बनी। 

तो करुणानिधि का मूल्यांकन करते समय आपको उनके सारे पक्षों को देखना होगा। हालांकि राष्ट्रीय राजनीति से संपर्क होने के साथ उनका आक्रामक तमिलवाद कम से कम सार्वजनिक स्तर पर मद्धिम पड़ा। राजीव गांधी सरकार के खिलाफ अभियान चलाने के भी वे सहभागी बने। 1989 में वी।पी। सिंह सरकार गठित कराने में उनकी मुख्य भूमिका थी। यहां से उनकी राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका आंरभ हुई और इसका असर उन पर अवश्य हुआ। 1996 की संयुक्त मोर्चा सरकार में द्रमुक के नेता मंत्री बने। फिर 1999 में जयललिता की अटलबिहारी वाजपेयी सरकार से समर्थन वापसी के बाद हुए चुनाव में उन्होंने भाजपा की मदद की तथा राजग सरकार में उनके सांसद मंत्री बने।

अगर करुणानिधि की राजनीतिक विचारधारा को देखें तो इसे बहुत बड़ा बदलाव कहा जा सकता है। द्रमुक एक ऐसी पार्टी के नेतृत्व में सरकार में शामिल हुई जो उसकी विचारधारा के हमेशा विरुद्ध रही। जनसंघ से लेकर भाजपा न केवल हिंदुत्व के विचारों पर आधारित थी, बल्कि आर्य द्रविड़ बंटवारे का हमेशा विरोध करती रही और हिंदी को राजभाषा बनाने की समर्थक भी थी। इसे आप बदलाव कहिए या केंद्रीय सत्ता में आने का अवसरवाद, यह आपकी सोच पर निर्भर है। बाद में भाजपा से उनका मतभेद हुआ एवं यूपीए के गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। 2014 तक सरकार में रहते हुए उनका आक्रामक तमिलवाद का स्वर कभी देखने को नहीं मिला। 

तमिलनाडु की राजनीति में करुणानिधि एवं जयललिता दोनों के कारण हुए खालीपन को भरना आसान नहीं होगा। उसमें समय लगेगा और हो सकता है कुछ समय तक प्रदेश अस्थिरता का शिकार हो। वैसे केंद्रीय राजनीति में दोनों प्रमुख पार्टियों की लगातार भागीदारी से द्रविड़वाद की आक्रामकता भी हाल के वर्षो में काफी कम हुई है। हिंदी भाषियों की बड़ी संख्या तमिलनाडु में रोजगार के लिए पहुंची है। 2014 के चुनाव में पहली बार वहां हिंदी में पोस्टर देखने को मिले और उसे  फाड़ा नहीं गया। इस सबका प्रभाव अवश्य ही करुणानिधि की अनुपस्थिति वाली राजनीति पर दिखाई देगा।

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