उर्दू के मशहूर शायर राही मासूम रज़ा का जन्म 1 सितंबर 1927 में गाजीपुर में हुआ था। संवाद लेखक के रूप में मशहूर राही मासूम रज़ा ने टी.वी. सीरियल 'महाभारत' के संवाद लिखें। इसके साथ ही इन्होंने 1979 में 'मैं तुलसी तेरे आँगन की' फ़िल्म के लिए संवाद लिखा। इसके लिए उन्हें फिल्म फेयर सर्वश्रेष्ठ संवाद पुरस्कार से नवाजा भी गया।
उर्दू शायरी से अपनी रचना यात्रा आरंभ करने वाले राही मासूम रज़ा ने पहली कृति 'छोटे आदमी की बड़ी कहानी' लिखी थी, जो 1965 के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए वीर अब्दुल हमीद की जीवनी पर आधारित है। आधा गाँव, नीम का पेड़, कटरा बी आर्ज़ू, टोपी शुक्ला, ओस की बूंद और सीन 75 उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं इनका निधन 15 मार्च, 1992 में मुंबई में हुआ था।
राही मासूम रज़ा की पुण्यतिथि पर पढ़िये उनकी किताबों के कुछ अंश-
- पैदा तो केवल बच्चे होते हैं। मरते-मरते वह हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, नास्तिक, हिन्दुस्तानी, पाकिस्तानी, गोरे, काले और जाने क्या क्या हो जाते हैं। (टोपी शुक्ला)
- लाश !यह शब्द कितना घिनौना है ! आदमी अपनी मौत से, अपने घर में, अपनेबाल-बच्चों के सामने मरता है तब भी बिना आत्मा के उस बदन को लाश ही कहते हैं। (टोपी शुक्ला)
- बलवाइयों के हाथों परम्परा मरती है, सभ्यता मरती है, इतिहास मरता है। कबीर की राम की बहुरिया मरती है। जायसी की पद्मावती मरती है। कुतुबन की मृगावती मरती है, सूर की राधामरती है। वारिस की हीर मरती है। तुलसी के राम मरते हैं। अनीस के हुसैन मरते हैं।कोई लाशों के इस अम्बार को नहीं देखता। हम लाशें गिनते हैं। सात आदमी मरं।चौदह दूकान लुटा। दो घरों में आग लगा दी गई। जैसे कि घर, दूकान और आदमीकेवल शब्द हैं जिन्हें शब्दकोशों से निकालकर वातावरण में मंडराने के लिए छोड़ दियागया हो !... (असंतोष के दिन) - स्मगलिंग x दादागीरी = राजनीतिजबान x भाषा = राजनीतिधर्म x मज़हब = राजनीतिचूँकि स्मगलिंग x दादागीरी = राजनीतिचूँकि धर्म x मज़हब = राजनीतिइसलिए स्मगलिंग x दादागीरी = धर्म x मज़हब
और इन सब को जोड़ दें तो हासिल जमा : लाश ! (असंतोष के दिन)
"मैं हर हिन्दू से नफ़रत करती हूँ।" सकीना ने कहा।" बहुत अच्छा करती हो ।" टोपी ने कहा। “ भाई मुझ पर और तुम पर अब शकनहीं कर सकते। वैसे मैं भी मुसलमानों से कोई खास प्यार नहीं करता।"तो यहाँ क्यों आते हो ?""यह तो मेरे एक दोस्त का घर है।"दोस्त !तो यह शब्द अभी तक जी रहा है ! " (टोपी शुक्ला)
"क्योंकि वह मेरा घर भी है। 'क्योंकि' -यह शब्द कितना मजबूत है। और इस तरह के हज़ारों-हज़ार 'क्योंकि' और हैं और कोई तलवार इतनी तेज़ नहीं हो सकती कि इस 'क्योंकि' को काट दे! और जब तक यह क्योंकि ज़िंदा है, मैं सय्यद मासूम रज़ा आब्दी गाज़ीपुर ही का रहूँगा, चाहे मेरे दादा कहीं के रहे हों। " - राही मासूम रज़ा (आधा गाँव की भूमिका से)