स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता (कलकत्ता) में हुआ था। विवेकानंद 25 की उम्र में रामकृष्ण परमहंस के शिष्य बन चुके थे। शिकागो के प्रसिद्ध धर्म सम्मेलन (1893) में जाने से पहले उन्होंने पूरे देश का भ्रमण किया था। इस दौरान वो विभिन्न धर्मों के आध्यात्मिक विभूतियों से मिले थे। जनवरी 1890 में विवेकानंद इलाहाबाद में मौजूद थे। उन्होंने गाजीपुर के पवहारी बाबा के बारे में सुन रखा था। पवहारी बाबा के बारे में किंवदंती थी कि वो आहार लगभग नहीं ग्रहण करते। कहा जाता था कि वो भूख लगने पर बस नीम की कुछ पत्तियां और मिर्च खाते थे। उनका आहार इतना कम था कि उन्हें पवहारी (हवा जिसका भोजन हो) बाबा कहा जाने लगा। पवहारी बाबा लोगों से मिलना-जुलना भी ज्यादा पसंद नहीं करते थे। विवेकानंद ने भी कई दिन तक उनसे मिलने की कोशिश की तब जाकर सफल हुए।
स्वामी विवेकानंद ने चार फरवरी 1890 को अपने एक दोस्त प्रमादाबाबू को लिखे पत्र में पवहारी बाबा का जिक्र करते हुए कहा, ""सचमुच महान संत! ये शानदार, और इस ढलती उम्र में भक्ति और योग की शक्ति के इस उच्च प्रतीक से मिलना अद्भुत है। मैंने उनसे शरण मांगी और उन्होंने मुझे उम्मीद दिलायी है कि भले ही कुछ वो मुझे देंगे। बाबाजी की इच्छा है कि मैं कुछ दिन यहां रुकूं और वो मेरा कुछ लाभ होगा। इसलिए इस संत के लिए मुझे यहाँ कुछ दिन रुकना होगा।" विवेकानंद पवहारी बाबा के आश्रम के निकट रह कर ही तपस्या करने लगे। इस दौरान विवेकानंद बीमार भी पड़ गये थे।
विवेकानंद पवहारी बाबा से योग सीखना चाहते थे। उन्होंने शुरुआत राज योग सीखने से की लेकिन वो उसमें ज्यादा प्रगति नहीं कर सके। पवहारी बाबा बहुत कम बोलते थे और जब बोलते थे तो भी उनकी बातें सीधी और साफ नहीं होती थीं। कई दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। स्वामी विवेकानंद का सब्र जवाब देने लगा। विवेकानंद ने लिखा है कि इस दौरान उन्हें अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण के सपने भी आने लगे थे।
विवेकानंद ने तीन मार्च 1890 को अपने दोस्त प्रमादाबाबू को लिखा, "अब मुझे पूरा मामला उलटा नजर आ रहा है। मैं यहाँ भिखारी बन कर आया था लेकिन अब वो पलट कर मुझसे ही सीखना चाहते हैं! इस संत को शायद पूर्णता नहीं प्राप्त है। यहां बहुत ज्यादा ही अनुष्ठान हैं, व्रत और आत्महनन है। मुझे पूरा यकीन है कि भरा हुआ समुद्र किनारों में बंधकर नहीं रह सकता। इसलिए ये अच्छा नहीं है। मैं इस साधु को बेकार में परेशान नहीं करना चाहता। मुझे जल्द ही उनसे जाने की इजाजत लेनी होगी।"
उसके बाद विवेकानंद पवहारी बाबा को छोड़कर देश भ्रमण पर आगे निकल गये। इसी दौरान उन्होंने अमेरिका में हो रहे विश्व धर्म सम्मेलन के बारे में सुना। उन्होंने तय किया कि वो सनातन धर्म के प्रतिनिधि के तौर पर शिकागो जाएंगे। 1893 में हुए शिकागो धर्म सम्मेलन में विवेकानंद के संबोधनों ने पूरी दुनिया में उन्हें मशहूर कर दिया। अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने मई 1897 में कर्म योग के प्रचार-प्रसार के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। चार जुलाई 1902 को उन्होंने योग निद्रा में लीन होकर अपने प्राण त्याग दिये।