विजय दर्डा का ब्लॉग: लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं विश्वास का संकट 

By विजय दर्डा | Published: October 29, 2018 05:34 AM2018-10-29T05:34:44+5:302018-10-29T05:34:44+5:30

2016 की बात है, तत्कालीन सीबीआई डायरेक्टर अनिल सिन्हा रिटायर होने वाले थे। उनके बाद वरिष्ठता के हिसाब से डायरेक्टर बनने का नंबर आर.के. दत्ता का था

Vijay Darda blog: cbi crisis of faith is not good for democracy cvc rakesh asthana congress bjp narendra modi | विजय दर्डा का ब्लॉग: लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं विश्वास का संकट 

विजय दर्डा का ब्लॉग: लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं विश्वास का संकट 

चाहे कितना भी आरोप लगे कि राजनीतिक पार्टियां सीबीआई का अपने हिसाब से इस्तेमाल करती हैं लेकिन हकीकत यह है कि जब पुलिस कोई मसला नहीं सुलझा पाती है तो यह मांग उठती है कि सीबीआई से जांच कराई जाए! इसका सीधा सा मतलब है कि सीबीआई पर लोगों का भरपूर भरोसा रहा है। यह भरोसा भी रहा है कि जांच के जिन बिंदुओं को पुलिस ढूंढ नहीं पाती, उसे सीबीआई वाले ढूंढ निकालते हैं। लेकिन अभी जो स्थिति चल रही है, उसने सीबीआई को संकट के घेरे में ला खड़ा किया है। विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल पैदा हो गया है। कौन दोषी है और कौन दामन पाक है, यह मामला जांच के घेरे में है।

सरकारी विभागों में अधिकारियों में तनातनी की बात कोई नई नहीं है लेकिन जब देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी की बात हो तो पूरे देश का चिंतित होना स्वाभाविक है। आश्चर्य की बात यह है कि इस मसले को और गंभीर बना देने में सरकार की भूमिका भी संदेह के घेरे में है। 2016 की बात है, तत्कालीन सीबीआई डायरेक्टर अनिल सिन्हा रिटायर होने वाले थे। उनके बाद वरिष्ठता के हिसाब से डायरेक्टर बनने का नंबर आर।के। दत्ता का था लेकिन सिन्हा के रिटायर होने के दो दिन पहले दत्ता का ट्रांसफर गृह मंत्रलय में हो गया। इसके बाद सरकार ने गुजरात 

कैडर के राकेश अस्थाना को सीबीआई का अंतरिम निदेशक नियुक्त किया। इसके खिलाफ वकील प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट चले गए।
 
यहां इस बात पर गौर करना जरूरी है कि सीबीआई के निदेशक का चयन प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया द्वारा किया जाता है। इन तीनों की सर्वसम्मति से फरवरी 2017 में आलोक वर्मा सीबीआई के निदेशक बन गए। अक्तूबर 2017 में केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) के नेतृत्व वाली सेलेक्शन कमेटी ने जब  अस्थाना को स्पेशल डायरेक्टर के रूप में पदोन्नत किया तो आलोक वर्मा ने विरोध किया।

उनका कहना था कि अस्थाना पर कई गंभीर आरोप हैं। उन पर जांच जारी है इसलिए उन्हें सीबीआई में नहीं होना चाहिए। वर्मा ने सेलेक्शन कमेटी के सामने एक गोपनीय रिपोर्ट भी पेश की जिसमें गुजरात की कंपनी स्टर्लिग बायोटेक से रिश्वत लेने के मामले में कई नाम शामिल थे। सूची में अस्थाना का नाम भी था। सीवीसी ने वर्मा की आपत्ति को खारिज कर दिया। अस्थाना की पदोन्नति हो गई। उसके बाद सीबीआई में घमासान तेज हो गया। 

बात एकदम से तब बिगड़ी जब रिश्वत के एक मामले में सीबीआई ने अपने ही नंबर दो अधिकारी राकेश अस्थाना पर एफआईआर दर्ज कर ली। उन पर एक मामले में दो करोड़ रुपए रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया। उनके एक सहयोगी डीएसपी  देवेंद्र को इस मामले में गिरफ्तार भी किया गया। इसके बाद अस्थाना ने वर्मा पर तीन करोड़ रुपए लेने के न केवल आरोप लगाए बल्कि केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) में कई शिकायतें दर्ज करा दीं। जब आग की लपटें उठने लगीं तो सरकार ने अचानक वर्मा और अस्थाना को छुट्टी पर भेज दिया! 

स्वाभाविक तौर पर विपक्ष की प्रतिक्रिया कठोर होनी ही थी! कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो यहां तक आरोप लगा दिया कि वर्मा चूंकि राफेल मामले की तह तक जाने की कोशिश कर रहे थे, इसलिए उन्हें हटाया गया। खैर, यह तो आरोप की बात है, मूल मसला यह है कि सीबीआई के निदेशक के चयन में जिन लोगों की भूमिका होती है, उन्हें विश्वास में लिए बगैर आधी रात को कैसे छुट्टी पर भेजा जा सकता है?

भले ही सरकार की यह मंशा रही हो कि जब दोनों आपस में लड़ रहे हैं और एक दूसरे पर उनके आरोप-प्रत्यारोप से सीबीआई की छवि खराब हो रही है तो छुट्टी पर भेज देना ठीक रहेगा! लेकिन जिस तरह से पूरी कार्रवाई हुई है, उसने आम आदमी के मन में संदेह तो पैदा किया ही है। वर्मा को व्हाट्सएप्प पर छुट्टी पर जाने का आदेश दिया गया। उनके ऑफिस की तलाशी ली गई। उनके घर के बाहर इंटेलिजेंस ब्यूरो के लोग तैनात कर दिए गए। क्या इससे संस्था पर आंच नहीं आई है? 

इसमें कोई संदेह नहीं कि इस पूरे मामले में सीबीआई की गरिमा को ठेस पहुंची है और व्यवस्था पर से आम आदमी का विश्वास डगमगाया है। लोकतंत्र में विश्वास सबसे बड़ा पहलू होता है। हम अपने नेताओं पर भरोसा करते हैं इसलिए उन्हें वोट देते हैं और अपने प्रतिनिधि के तौर पर शासन के लिए भेजते हैं।

उनकी जिम्मेदारी होती है कि विभिन्न महकमों का काम पारदर्शी तरीके से संचालित करें। यदि पारदर्शिता नहीं होगी तो आम आदमी का व्यवस्था में विश्वास नहीं रहेगा। यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है। और हां, यदि सरकार पर विपक्ष यह आरोप लगाता है कि अपने हितों के लिए वह किसी जांच एजेंसी की कार्यप्रणाली को प्रभावित करने की कोशिश करती है  तो यह और खतरनाक मसला है। संभलने की जरूरत है। 

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