28 दिसम्बर 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना अचानक होने वाली कोई अनपेक्षित घटना नहीं थी। 1860 और 1870 के दशकों से ही भारतीय नागरिकों में राजनितिक चेतना पनपने लगी थी। कांग्रेस की स्थापना इसी बढ़ती हुई चेतना का ही परिणाम था।
1870 दशक के अंत और 1880 के दशक के शुरू में भारतीय नागरिक राजनितिक रूप से जागरूक हो गए थे। 1885 ने इस राजनितिक चेतना के करवट ली।
भारतीय राजनीति में बुद्धिजीवी सक्रीय हुए, स्वार्थ हितों के बजाएं राष्ट्र हितों पर आवाज उठने लगे। उनके इस प्रयास में सफलता तब मिली जब एक 'राष्ट्रीय दल' का गठन हुआ।एक ऐसा दल, जो राष्ट्रीय चेतना का प्रतिक था, भारतीय राजनीति का एक प्लेट फॉर्म, एक संगठन , एक मुख्यालय।
पर जब लोगों में राजनीति जज्बा, योग्यता और देशभक्ति सब मौजूद थी तो ये सवाल सोचनीय हैं कि आखिर ए ओ ह्यूम को इस संगठन का मुखिया क्यों बनाया गया था। इस बात का खुलासा तब हुआ हयूम की जीवनी 1913 में प्रकाशित हुई।
न्याय मूर्ति रानाडे, दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, एस सुब्रह्यण्यम अय्यर और बाद आए सुरेन्द्र नाथ बनर्जी जैसे उत्साहित और प्रतिबद्ध नेताओं ने इसलिए हयूम का सहयोग लिया क्योंकि वह शुरू में ही सरकार से दुश्मनी नहीं मोल लेना चाहते थे। उनका सोचना था कि कांग्रेस जैसे सरकार विरोधी संगठन का मुख्य संगठनकर्ता, एक ऐसा शख्स हो जो ब्रिटिश सरकार से सम्बंध रखता हो तो इस संगठन के प्रति सरकार का शक कम होगा और इस कारण कांग्रेस पर सरकारी हमलों की गुंजाइश भी कम होगी।
अगर दूसरे शब्दों में कहें तो उस वक्त हयूम इस्तेमाल केवल एक सुरक्षा कवच की तरह किया था और जैसे की हालात गवाह हैं इस मामलें में कांग्रेस नेताओं का अंदाजा और उम्मीदें सही निकलीं।