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UP में मीठे बांस की खेती से किसानों की आय बढ़ाने की तैयारी, लोगों को दी जा रही ट्रेनिंग

By भाषा | Updated: February 16, 2020 15:31 IST

उत्तर प्रदेश में बांस की खेती को अभी तक बढ़ावा नहीं मिलने की वजह के बारे में डाक्टर संजय सिंह ने कहा कि प्रदेश में अभी कोई बैम्बू टेक्नोलॉजी सेंटर नहीं है। इसके अलावा यहां कोई ट्रीटमेंट या प्रोसेसिंग सेंटर की सुविधा भी नहीं है।

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ठळक मुद्देकेंद्र सरकार के ‘नेशनल बैम्बू मिशन’ के तहत यहां स्थित वन अनुसंधान केंद्र ने बांस की विभिन्न प्रजातियों खासकर मीठे बांस (खाने योग्य बांस) की पूरे प्रदेश में खेती को बढ़ावा देने की तैयारी की है। वन अनुसंधान केंद्र के प्रमुख डाक्टर संजय सिंह ने बताया कि विदेश में मीठे बांस, जिसका वैज्ञानिक नाम डैंड्रो कैलामस एस्पर है।

केंद्र सरकार के ‘नेशनल बैम्बू मिशन’ के तहत यहां स्थित वन अनुसंधान केंद्र ने बांस की विभिन्न प्रजातियों खासकर मीठे बांस (खाने योग्य बांस) की पूरे प्रदेश में खेती को बढ़ावा देने की तैयारी की है। वन अनुसंधान केंद्र के प्रमुख डाक्टर संजय सिंह ने बताया कि विदेश में मीठे बांस, जिसका वैज्ञानिक नाम डैंड्रो कैलामस एस्पर है, की भरपूर मांग है, लेकिन भारत की इस बाजार में हिस्सेदारी अभी कम है। पूरे यूरोप, अमेरिका को मीठे बांस की आपूर्ति दक्षिण एशियाई देश करते हैं। 

उन्होंने बताया कि भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद ने 90 के दशक में थाइलैंड से मीठा बांस मंगाकर भारत के विभिन्न राज्यों में इसका परीक्षण कराया था और लगभग सभी जगहों पर इसका परीक्षण सफल रहा। हालांकि वाणिज्यिक स्तर पर इसकी खेती कराने पर अभी अधिक ध्यान नहीं दिया गया था। 

सिंह ने बताया कि विदेश में बैम्बू शूट (खाने योग्य मीठा बांस) 200-250 रुपये प्रति केन (200 ग्राम) की दर पर बिकता है। यदि इसकी चटनी और आचार बनाकर मूल्यवर्धन किया जाए तो मीठे बांस का और अच्छा भाव मिलेगा। केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक यादव ने बताया कि इस मिशन के तहत यह केंद्र मीठे बांस के अलावा टुल्डा, बाल्कोआ, नूटन, कागजी बांस की खेती को भी बढ़ावा देगा। हरित कौशल विकास के तहत केंद्र इस समय बांस की खेती के लिए पूरे प्रदेश से 24 लोगों को प्रशिक्षण दे रहा है। 

यादव ने बताया कि वर्तमान में उत्तर प्रदेश में दो तरह के बांस की खेती की जा रही है। पहला लाठी बांस जिससे लाठी तैयार की जाती है, जबकि दूसरा कंटीला बांस जिसका उपयोग झोपड़ी बनाने में किया जाता है। उन्होंने कहा कि पांच साल की इस परियोजना के तहत प्रदेश में ऊसर, बांगड़ जैसी अनुपयोगी जमीन पर बांस की 8 विभिन्न प्रजातियों का परीक्षण किया जाएगा ताकि किसान ऊसर भूमि का उपयोग बांस की खेती के लिए कर सकें। 

प्रदेश में बांस की खेती को अभी तक बढ़ावा नहीं मिलने की वजह के बारे में डाक्टर संजय सिंह ने कहा कि प्रदेश में अभी कोई बैम्बू टेक्नोलॉजी सेंटर नहीं है। इसके अलावा यहां कोई ट्रीटमेंट या प्रोसेसिंग सेंटर की सुविधा भी नहीं है। इससे किसान बांस के उत्पाद बनाने के लिए प्रोत्साहित नहीं किए जा सके। इसमें दो राय नहीं कि बाँस को बहुत उपयोगी फसल और पर्यावरण के शुद्धिकरण में सहायक माना जाता है। 

एक बार लगाने के बाद यह पांच साल बाद उपज देने लगता है। अन्य फसलों पर सूखे एवं कीट बीमारियों का प्रकोप हो सकता है। जिसके कारण किसान को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। लेकिन बाँस की फसल पर अमूमन सूखे, कीट एवं वर्षा का अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है। बाँस के पेड़ की एक अन्य विशेषता की बात करें तो अन्य पेड़ों की अपेक्षा यह 30 प्रतिशत तक अधिक ऑक्सीजन छोड़ता और कार्बन डाईऑक्साइड खींचता है। 

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