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सुधीर दर स्मृति शेष: कार्टून के सुनहरे दौर के आखिरी स्तंभ और ऑल इंडिया रेडियो में उद्घोषक

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: November 29, 2019 09:01 IST

कॉलेज के दिनों में ही उनका पहला कार्टून 1951 में उस दौर की प्रतिष्ठित पत्रिका इलेस्ट्रेटेड वीकली में छपा था.लेकिन बाद में उन्होंने इंडिया रेडियो की विदेश प्रसारण सेवा में दो साल नौकरी की और फिर एयर इंडिया में चले गए. उनकी रचनात्मक प्रतिभा उन्हें निरंतर कुरेदती रही और तब उन्हें लगा उनकी असली दुनिया वही है.

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ठळक मुद्देइलाहाबाद में जन्मे सुधीर दर को बचपन से ही पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने का शौक इसलिए हो गया था कि उनके पिता की प्रिंटिंग प्रेस थी.सुधीर जब भी प्रेस में जाते तो कोई न कोई अखबार उठाकर उसे पढ़ने के साथ उसके हाशिये पर कोई न कोई आकृति बनाने लगते थे. उनके इसी शौक ने धीरे धीरे उन्हें कार्टूनिस्ट बना दिया.

प्रदीप सरदाना

एक समय था जब देश में अबु अब्राहम, आर. के. लक्ष्मण, ओ.वी. विजयन, सुधीर दर और सुधीर तैलंग जैसे कार्टूनिस्ट का बोलबाला था. प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक इनकी प्रतिभा के कायल थे. अबू, लक्ष्मण, विजयन और तैलंग तो पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं और अब सुधीर दर के जाने के साथ ही कार्टून की दुनिया के सुनहरे दौर का आखिरी स्तंभ भी ढह गया.

इलाहाबाद में जन्मे सुधीर दर को बचपन से ही पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने का शौक इसलिए हो गया था कि उनके पिता की प्रिंटिंग प्रेस थी. सुधीर जब भी प्रेस में जाते तो कोई न कोई अखबार उठाकर उसे पढ़ने के साथ उसके हाशिये पर कोई न कोई आकृति बनाने लगते थे. उनके इसी शौक ने धीरे धीरे उन्हें कार्टूनिस्ट बना दिया.

कॉलेज के दिनों में ही उनका पहला कार्टून 1951 में उस दौर की प्रतिष्ठित पत्रिका इलेस्ट्रेटेड वीकली में छपा था. लेकिन बाद में उन्होंने इंडिया रेडियो की विदेश प्रसारण सेवा में दो साल नौकरी की और फिर एयर इंडिया में चले गए. उनकी रचनात्मक प्रतिभा उन्हें निरंतर कुरेदती रही और तब उन्हें लगा उनकी असली दुनिया वही है.

1960 के आरंभ में सुधीर दर ने यह फैसला ले लिया कि वह कार्टूनिस्ट ही बनेंगे. जल्द ही उन्हें दिल्ली में स्टेट्समैन अखबार में बतौर कार्टूनिस्ट नौकरी मिल गई. तब से अंत तक लगभग 60 बरस के अपने करियर में सुधीर दर ने एक से एक कार्टून बनाकर जो प्रतिष्ठा और लोकप्रियता पाई वह किसी विरले को ही मिलती है. उनकी लंबी चौड़ी कद काठी और लालिमा लिए गोरे चेहरे को देखकर लगता था कि वह कोई अंग्रेज हैं. मुझे उनसे ढंग से मिलने और बातचीत करने का पहला मौका मार्च 1985 में तब मिला, जब उसी समूह की उस दौर की प्रसिद्ध पत्रिका 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' के लिए मैंने उनका इंटरव्यू किया. उनका बात-बात में हंसी-मजाक करना देखते ही बनता था. उसके बाद उनसे लंबे समय तक अनेक यादगार मुलाकातें होती रहीं.

अपनी पहली बातचीत में ही सुधीर दर ने मुझे इतना प्रभावित किया. मैं सोचता था कि इतना प्रतिष्ठित व्यक्ति अहंकारी किस्म का होगा लेकिन जब वह मिले तो इतने मधुर भाव से कि मैं हैरान रह गया. वह स्टेट्समैन के बाद हिंदुस्तान टाइम्स में आए जहां रोज पहले पृष्ठ पर छपने वाले उनके पॉकेट कार्टून 'दिस इज इट' ने उन्हें जल्द ही स्टार कार्टूनिस्ट बना दिया.

वह राजनीति और राजनेताओं पर कटाक्ष करने वाले कार्टून भी खूब बनाते थे. लेकिन आम आदमी की समस्याओं और समाज से जुड़ी बातों को तो उन्होंने जमकर उठाया. उस समय 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में लक्ष्मण जहां मुंबई महानगर को केंद्र में रखते थे तो सुधीर दर राजधानी दिल्ली की तस्वीर को अक्सर अपने कार्टून का विषय बनाते थे.

अपने खुश और मस्त व्यवहार पर उनका कहना था कि एक कार्टूनिस्ट को हमेशा अच्छे मूड में रहना चाहिए. यदि आप रुखे-रुखे रहते हैं और आपको भीतर कोई घुन खा रहा है तो वह आपके काम में भी उतर जाएगा.

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