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लद्दाख में समय से पहले बर्फबारी ने दी दस्तक, न नागरिक तैयारी कर पाए और न ही सेना

By सुरेश एस डुग्गर | Updated: October 26, 2020 11:21 IST

लद्दाख में सर्दी अपने भयानक रूप में दस्तक दे चुकी है ओर ऐसे में दोनों मुल्कों की सेनाएं अपने जवानों का मनोबल बढ़ाने की कोशिश में जुटी हैं। अधिकारी कहते थे कि प्रकृति के स्वरूप को लेकर वे कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते हैं। 

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ठळक मुद्देइस बार लद्दाख सेक्टर में बर्फ ने समय से बहुत पहले दस्तक क्या दी, करगिल और द्रास के नागरिकों के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच आईंनवम्बर 15 के बाद करगिल और द्रास समेत लद्दाख के पहाड़ों पर बर्फबारी आरंभ होती थी। लेकिन इस बार 25 अक्टूबर को ही इसकी दस्तक ने सभी को चौंकाया है।

जम्मूः इस बार लद्दाख सेक्टर में बर्फ ने समय से बहुत पहले दस्तक क्या दी, करगिल और द्रास के नागरिकों के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच आईं। ऐसा ही हाल उन सैनिकों का है जो चीन सीमा पर चीन की बढ़त व घुसपैठ को रोकने की खातिर तैनात किए गए हैं। चिंता का कारण स्पष्ट है। न ही नागरिक व नागरिक प्रशासन कोई तैयारी कर पाया और न ही तैनात सैनिकों को सर्दी से बचाने की खातिर तैयारी पूरी की जा सकी है।

अक्सर, नवम्बर 15 के बाद करगिल और द्रास समेत लद्दाख के पहाड़ों पर बर्फबारी आरंभ होती थी। लेकिन इस बार 25 अक्टूबर को ही इसकी दस्तक ने सभी को चौंकाया है। द्रास स्थित प्रशासनिक अधिकारी मानते हैं कि चीन सीमा पर सैनिकों की तैनाती की कवायद में ही जुटे रहने के कारण वे करगिल व द्रास के नागरिकों के लिए सर्दी में की जाने वाली तैयारियां ही आरंभ नहीं कर पाए। नतीजतन, राजमार्ग के बंद होने की चिंता के कारण अब सारा जोर वायुसेना पर आ पड़ेगा।

यही दशा लद्दाख में चीन सीमा पर तैनात किए गए एक लाख के करीब भारतीय जवानों के प्रति भी है जिनके लिए आवश्यक सामान की आपूर्ति का काम भी अभी अधूरा है। सप्लाई के साथ साथ भयानक सर्दी से बचाने की खातिर मुहैया करवाये जाने वाले कपड़े इत्यादि अभी तक सभी तक नहीं पहुंच पाए हैं।

हालांकि इस परिस्थिति का सामना करने की खातिर सेना ने अब अग्रिम चौकिओं पर अधिक से अधिक जवानों को रोटेशन के आधार पर तैनात करना आरंभ किया है। ऐसा ही चीन भी कर रहा है जो प्रत्येक चौकी में जवानों को तीन से चार दिन ही तैनात करते हुए फिर उन्हें बैरकों में वापस बुला रहा है।

सूत्र मानते हैं कि लद्दाख में सर्दी अपने भयानक रूप में दस्तक दे चुकी है ओर ऐसे में दोनों मुल्कों की सेनाएं अपने जवानों का मनोबल बढ़ाने की कोशिश में जुटी हैं। अधिकारी कहते थे कि प्रकृति के स्वरूप को लेकर वे कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते हैं। 

वे इसका ख्मियाजा सियाचिन हिमखंड में शुरू के सालों में भुगत चुके हैं जब 13 अप्रैल 1984 को भारतीय सेना ने इसे अपने कब्जे में लिया था। यह भी सच है कि आज भी सियाचिन हिमखंड में सबसे अधिक नुक्सान कुदरत के कारण सहन करना पड़ रहा है और भारतीय सेना चीन सीमा पर इसे दोहराना नहीं चाहती है।

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