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पुण्यतिथि: सफ़दर हाशमी दूसरों से अलग क्यों हैं?

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: January 2, 2018 14:51 IST

रंगकर्मी सफ़दर हाशमी ने दो जनवरी 1989 को दिल्ली के एक अस्पताल में अपनी आखिरी सांसें ली थीं।

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आज भी एडमिशन के सीजन में जब दिल्ली विश्वविद्लाय के नामी कॉलेजों की कट-ऑफ लिस्ट निकलती है तो सेंट स्टीफेंस कॉलेज से इंग्लिश ऑनर्स पढ़ने वालों का कट-ऑफ सबसे हाई होता है। ये कॉलेज और इसका इंग्लिश ऑनर्स देश में कमोबेश अभिजात्यता का प्रतीक है। इसी कॉलेज से इंग्लिश ऑनर्स करने वाले एक नौजवान ने अभिजात्य जीवन की राहों को छोड़कर मजदूरों-बेगारों-किसानों की हिमायत की राह चुन ली। उसकी इस गलती से नाराज कुछ लोगों ने महज 34 साल आठ महीने की उम्र में उसकी हत्या कर दी। वो नौजवान था सफ़दर हाशमी। दिल्ली से सटे साहिबाबाद में एक नुक्कड़ नाटक करते हुए कांग्रेस कार्यकर्ताओं के गिरोह ने सफ़दर  और उनके साथियों पर घातक हमला कर दिया। राम बहादुर नामक एक मजदूर साथी की मौके पर ही मौत हो गयी। एक दिन बाद दो जनवरी 1989 को सफ़दर ने अस्पताल में अपनी आखिरी सांसें लीं।

सफ़दर हाशमी का जन्म 12 अप्रैल 1954 को हनीफ हाशमी और क़मर आजाद के घर हुआ। उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई-लिखाई अलीगढ़ और दिल्ली में की। सेंट स्टीफेंस से बीए करने के बाद दिल्ली विश्वविद्लाय से ही उन्होंने एमए (इंग्लिश) भी किया। कॉलेज के दौरान ही सीपीआई और उसकी नाट्य संस्था इप्टा से उनका जुड़ाव हो गया।  सफदर ने अपने साथियों के साथ मिलकर 1973 में जन नाट्य मंच (जनम) की स्थापना की। उन्होंने अभिजात्य दिल्ली के पिछड़े इलाके शादी खामपुर में अपने नाट्य मंडली का कार्यालय बनाया। आज उस जगह का नाम सफ़दर स्टूडियो है। 

जब इंदिरा गांधी सरकार ने 1975 में आपातकाल लगाया तो सफदर लेक्चर के तौर पर दिल्ली छोड़कर गढ़वाल चले गये। आपातकाल खत्म होने के बाद वो 1977 में दिल्ली वापस लौटे। सफ़दर ने समाचार एजेंसी पीटीआई और द इकोनॉमिक टाइम्स में पत्रकार के तौर पर भी काम किया था। बाद में वो भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी बन गये। सरकारी नौकरी सफ़दर को जमी नहीं। 1984 में उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और पूरी तरह सामाजिक जीवन को समर्पित हो गये। सफ़दर रंगमंच को केवल मनोरंजन का जरिया नहीं मानते थे। उनके लिए रंगमच सांस्कृतिक और राजनीतिक जागरुकता पैदा करने का माध्यम था। 

एक जनवरी 1989 को सफदर और उनेक साथी गाजियाबाद नगर पालिका चुनाव के दौरान वामपंथी प्रत्याशी के समर्थन में नुक्कड़ नाटक करने गये थे। नाटक के दौरान ही उनका कांग्रेस के स्थानीय कार्यकर्ताओं से बहस हो गयी।माना जाता है कि सफ़दर और उनके साथियों पर हमला पूर्वनियोजित था। 1970 के दशक में जब इंदिरा गांधी पर चुनाव में धांधली के आरोप लगे तो सफ़दर ने "कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी" नामक नुक्कड़ नाटक तैयार करके उसका मंचन किया। दिल्ली के बोट क्लब लॉन में इस नाटक का एक हफ्ते तक हर रोज मंचन होता रहा था। माना जाता है कि तभी से सफदर और जनम कांग्रेस सरकार के आंखों में खटकने लगे थे।

सफ़दर ने नाटक किसानों, बेरोजगारों, मजदूरों की आवाज उठाते थे। उनके गाँव से शहर तक, हत्यारे और अपहरण भाईचारे का, तीन करोड़, औरत, डीटीसी की धांधली, मोटेराम का सत्याग्रह जैसे नाटक आज भी प्रासंगिक हैं। जनम ने सफ़दर की शहाद तक करीब 24 नुक्कड़ नाटकों के लगभग चार हजार प्रदर्शन किए थे। सफदर ने बच्चों के लिए भी कविताएं और किताबें लिखीं। साल 2008 में राजकुमार संतोषी ने हल्ला बोल नामक फिल्म बनायी थी। माना जाता है कि ये फिल्म सफ़दर पर आधारित थी। सफ़दर की मौत के 14 साल बाद साल 2003 में गाजियाबाद की अदालत ने कांग्रेस सदस्य मुकेश शर्मा समेत 10 लोगों को हत्या का दोषी पाया था।

सफ़दर स्टूडियो में जनम को चंदा देने वालों में मशहूर एक्टर नसीरुद्दीन शाह और शबाना आजमी  के साथ ही अज्ञात मजदूरों तक के नाम हैं।  मशहूर निर्माता-निर्देशक अनुराग कश्यप ने भी रचनात्मक जीवन की शुरुआत जन नाट्य मंच से की थी। नसीरुद्दीन, शबाना, अनुराग जैसे लोग उन्हीं राहों से अपना सफर शुरू करके चकाचौंध और अमीरी के रपटीले रास्ते पर बढ़ जाते हैं। सफ़दर जैसे लोग उन्हीं राहों पर मारे जाते हैं। यही फर्क है सफ़दर और दूसरों में। 

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