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धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता?, सुप्रीम कोर्ट ने ममता सरकार को दिया झटका, ओबीसी केस पर सुनवाई

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: December 9, 2024 22:24 IST

राज्य सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा, ‘‘यह धर्म के आधार पर नहीं है। यह पिछड़ेपन के आधार पर है।’’

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ठळक मुद्देउच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल में 2010 से कई जातियों को दिया गया ओबीसी का दर्जा रद्द कर दिया था।सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों और सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में उनके लिए आरक्षण को अवैध ठहराया था। समुदायों को ओबीसी घोषित करने के लिए धर्म ही एकमात्र मानदंड प्रतीत हो रहा है।

नई दिल्लीः उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता। शीर्ष अदालत ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के उस फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए यह बात कही जिसमें पश्चिम बंगाल में 2010 से कई जातियों को दिया गया ओबीसी का दर्जा रद्द कर दिया गया था। उच्च न्यायालय के 22 मई के फैसले को चुनौती देने वाली पश्चिम बंगाल सरकार की याचिका सहित सभी याचिकाएं न्यायमूर्ति बी आर गवई और न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन की पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए आईं। न्यायमूर्ति गवई ने कहा, ‘‘आरक्षण धर्म के आधार पर नहीं हो सकता।’’ राज्य सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा, ‘‘यह धर्म के आधार पर नहीं है। यह पिछड़ेपन के आधार पर है।’’

 

उच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल में 2010 से कई जातियों को दिया गया ओबीसी का दर्जा रद्द कर दिया था और सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों और सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में उनके लिए आरक्षण को अवैध ठहराया था। अपने फैसले में उच्च न्यायालय ने कहा, ‘‘वास्तव में इन समुदायों को ओबीसी घोषित करने के लिए धर्म ही एकमात्र मानदंड प्रतीत हो रहा है।’’

उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि ‘‘मुसलमानों के 77 वर्गों को पिछड़ों के रूप में चुना जाना समग्र रूप से मुस्लिम समुदाय का अपमान है’’। राज्य के 2012 के आरक्षण कानून और 2010 में दिए गए आरक्षण के प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर निर्णय लेते हुए, उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि हटाए गए वर्गों के उन नागरिकों की सेवाएं, जो पहले से ही सेवा में थे या आरक्षण का लाभ उठा चुके थे, या राज्य की किसी भी चयन प्रक्रिया में सफल हुए थे, इस निर्णय से प्रभावित नहीं होंगी। उच्च न्यायालय ने कुल मिलाकर अप्रैल, 2010 और सितंबर, 2010 के बीच 77 वर्गों को दिए गए आरक्षण को रद्द कर दिया था।

उसने पश्चिम बंगाल पिछड़ा वर्ग (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा) (सेवाओं और पदों में रिक्तियों का आरक्षण) अधिनियम, 2012 के तहत ओबीसी के रूप में आरक्षण के लिए 37 वर्गों को भी रद्द कर दिया। सोमवार को सुनवाई के दौरान, शीर्ष अदालत ने मामले में उपस्थित वकीलों से मामले का अवलोकन करने को कहा।

उच्च न्यायालय के फैसले का उल्लेख करते हुए सिब्बल ने कहा कि अधिनियम के प्रावधानों को निरस्त कर दिया गया है। उन्होंने कहा, ‘‘इसलिए इसमें बहुत गंभीर मुद्दे शामिल हैं। यह उन हजारों छात्रों के अधिकारों को प्रभावित करता है जो विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने के इच्छुक हैं, जो लोग नौकरी चाहते हैं।’’

इसलिए सिब्बल ने पीठ से आग्रह किया कि कुछ अंतरिम आदेश पारित किए जाएं और उच्च न्यायालय के आदेश पर पूर्वदृष्टया रोक लगाई जाए। पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता पी एस पटवालिया सहित अन्य वकीलों की दलीलें भी सुनीं, जो मामले में कुछ प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। शीर्ष अदालत ने कहा कि वह सात जनवरी को विस्तृत दलीलें सुनेगी।

गत पांच अगस्त को मामले की सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने पश्चिम बंगाल सरकार से ओबीसी सूची में शामिल की गई नई जातियों के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन और सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में उनके अपर्याप्त प्रतिनिधित्व पर मात्रात्मक आंकड़े प्रदान करने को कहा था।

उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ राज्य सरकार की याचिका पर निजी वादियों को नोटिस जारी करते हुए शीर्ष अदालत ने राज्य से एक हलफनामा दाखिल करने को कहा। हलफनामे में 37 जातियों, जिनमें ज्यादातर मुस्लिम समूह थे, को ओबीसी सूची में शामिल करने से पहले उसके और राज्य के पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा किए गए परामर्श, यदि कोई हो, का विवरण देने को कहा गया है।

टॅग्स :पश्चिम बंगालममता बनर्जीसुप्रीम कोर्ट
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