इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि खुले में न्याय की अवधारणा पहली बार ईसा पूर्व तीसरी सदी में जिस भारतभूमि में आई थी, उसे यहां लागू होने के लिए इक्कीसवीं सदी तक इंतजार करना पड़ा। कौटिल्य ने अपने मशहूर ग्रंथ अर्थशास्त्न में न्यायाधीशों से खुले में सुनवाई करने और न्याय देने को कहा था। दो हजार तीन सौ साल पहले की यह अवधारणा भले ही उस वक्त लागू नहीं हो पाई, लेकिन अब इसके आसार बढ़ गए हैं।
यह बात और है कि कौटिल्य के देश की बजाय कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में यह व्यवस्था पहले से लागू है। अमेरिकी न्याय व्यवस्था भी कुछ अपवादों को छोड़ इसे स्वीकार कर चुकी है। खुले में भी सुनवाई हो सकती है, यह भारतीयों ने पहली बार 1998 में देखा था। अपनी इंटर्न मोनिका लेविंस्की के साथ यौन संबंधों को लेकर महाभियोग का सामना कर रहे तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के मामले की अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने खुले में सुनवाई की थी। सीधी सुनवाई का क्या नतीजा होता है, दुनिया ने तब महसूस किया, जब दुनिया का सबसे ताकतवर व्यक्ति अमेरिकी राष्ट्रपति बयान देते वक्त भर्रा उठा था।
अपने देश में खुले में न्याय की मांग को गति 2005 में सरकारी तंत्न में पारदर्शिता लाने के लिए पारित सूचना के अधिकार कानून के बाद मिली। अन्य सरकारी विभागों की तरह न्याय तंत्न पर भी भ्रष्टाचार और इंसाफ में हीलाहवाली के आरोप लगते रहे हैं। इसके बावजूद अपने यहां सबसे ज्यादा भरोसा न्यायतंत्न पर ही है। खुले में सुनवाई की मांग इसी को ध्यान में रखते हुए की गई है।
इस साल फरवरी में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने तर्क दिया था कि जब लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही का सीधा प्रसारण हो सकता है तो भारतीय न्यायतंत्न की कार्यवाही का सीधा प्रसारण क्यों नहीं। उन्होंने मांग की कि संवैधानिक और राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर केंद्रित सुनवाई का लाइव प्रसारण किया जाना चाहिए। जिस तरह 10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार से गाइडलाइन और राय मांगी, उससे साफ है कि सीधी कार्यवाही के प्रसारण के लिए उसने मन बना लिया है।