भूमि अधिकार पर राष्ट्रीय विमर्श में जुटे देश भर के 80 से ज्यादा कार्यकर्ता
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 14, 2019 08:43 PM2019-04-14T20:43:42+5:302019-04-14T20:43:42+5:30
ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक और सामुदायिक भूमि के सवाल पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि इन जगहों पर पिछड़े और वंचित समुदायों की पहुंच न होने की वजह से मत्स्यपालन, पशुपालन आदि पेशे आज संकट की स्थिति में हैं और कहीं न कहीं इस वजह से कृषि संकट का एक कारण भूमि अधिकारों का अनसुलझा मुद्दा भी है।
“जहां तक भूमि के मुद्दे का सवाल है, तो प्राकृतिक संसाधनों के मुद्दे गौर किए बिना और कृषि को केंद्र में रखे बिना भूमि के मुद्दे पर बात करना बेतुका है। देश की उन आर्थिक नीतियों पर भी गौर करने और सुधार लाने की जरूरत है, जिसके कारण कृषि हतोत्साहित हो रही है। 'भूमि अधिकार पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय विमर्श में ये बातें जेएनयू के प्रोफेसर प्रवीण झा ने आज भोपाल में कही।
सामाजिक संस्था जन पहल और एक्शन एड एसोसिएशन के साझा प्रयास से आयोजित भूमि अधिकार पर राष्ट्रीय विमर्श विभिन्न सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों और जमीन के मुद्दे पर काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं की बैठक के साथ शुरू हुआ। इस दो दिवसीय विमर्श का उद्देश्य भूमिहीन समुदायों के भूमि अधिकार के संघर्ष को मजबूत करने के लिए रणनीतियां तैयार करना है।
विकसित देश जहां व्यापक तौर पर कृषि का संरक्षण की रणनीति अपना रहे हैं, वही इसके ठीक उलट विकासशील देशों में कृषि पर हमले की नीतियां देखने को मिल रही हैं, जिससे कृषि और कृषक दोनों ही संकट में हैं।
अगर स्थिति ऐसी ही रही तो जल्द ही विकसित देष कृषि के क्षेत्र में विकासशील देशों पर हावी होंगे। यह चिंता का विषय है और प्राकृतिक संसाधनों के मुद्दे गौर करते हुए भूमि के मुद्दे पर बात करने और भूमि सुधार के एजेंडे को सभी राजनीतिक और नागरिक चर्चाओं के केंद्र में लाने और भूमि सुधारों को प्रतिबद्धता के साथ प्रभावी ढंग से लागू किए जाने की जरूरत है।
ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक और सामुदायिक भूमि के सवाल पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि इन जगहों पर पिछड़े और वंचित समुदायों की पहुंच न होने की वजह से मत्स्यपालन, पशुपालन आदि पेशे आज संकट की स्थिति में हैं और कहीं न कहीं इस वजह से कृषि संकट का एक कारण भूमि अधिकारों का अनसुलझा मुद्दा भी है।
कार्यक्रम में मौजूद एकता परिषद के रमेश शर्मा ने कहा, पिछले कुछ सालों में भूमि वितरण का क्रियान्वयन बेहद धीमा रहा है। लगभग 90 प्रतिशत भूमि अधिग्रहण परियोजनाएं, वन अधिकार अधिनियम जैसे जनहित कानून की राह का रोड़ा बने हैं। भारत में भूमि अधिकार का सवाल सांप-सीढ़ी के खेल जैसा है, जो भूमिहीन समुदायों के खिलाफ है। बीते 5 सालों में लगभग 8.5 लाख हेक्टेयर भूमि ढांचागत परियोजनाओं के भेंट चढ़ गई। वन परियोजनाओं में 70,000 हेक्टेयर और 2.9 लाख हेक्टेयर “बाहरी विकास की परियोजनाओं के हिस्से में गई और आज स्थिति यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों के समुदाय और लोग भूमि अधिकार से वंचित हैं।'