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नासिरा शर्मा: 'मेरे साहित्य में ख्वाब और सपने दोनों मिलते हैं'

By भाषा | Updated: November 10, 2019 17:09 IST

नासिरा शर्मा को साल 2014 में प्रकाशित उनके उपन्यास ‘कागज की नाव’ के लिए वर्ष 2019 के ‘व्यास सम्मान’ से सम्मानित किया जाएगा। उनकी मातृभाषा उर्दू है, वह हिंदी में साहित्य रचना करती हैं और फारसी उनका विषय रहा इसलिए उन्हें सब भाषाएं अपनी अपनी सी लगती हैं।

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ठळक मुद्देलेखिका नासिरा शर्मा किसी भाषा को किसी एक खास धर्म से जोड़ने का पुरजोर विरोध करती हैं।वर्ष 2016 में उन्हें उनके उपन्याय ‘‘पारिजात’’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था।

हर भाषा को एक दूसरे की पूरक मानने वाली हिंदी की प्रख्यात लेखिका नासिरा शर्मा किसी भाषा को किसी एक खास धर्म से जोड़ने का पुरजोर विरोध करती हैं। उनका मानना है कि अदब की बात करने वाले हर जुबान से मोहब्बत करते हैं और यही वजह है कि उनकी रचनाओं के किरदार कभी ‘ख्वाब’ बुनते हैं तो कभी ‘सपने’ देखते हैं। 

नासिरा शर्मा को साल 2014 में प्रकाशित उनके उपन्यास ‘कागज की नाव’ के लिए वर्ष 2019 के ‘व्यास सम्मान’ से सम्मानित किया जाएगा। उनकी मातृभाषा उर्दू है, वह हिंदी में साहित्य रचना करती हैं और फारसी उनका विषय रहा इसलिए उन्हें सब भाषाएं अपनी अपनी सी लगती हैं। उनका मानना है कि सियासत ने उर्दू को एक खास मजबह से जोड़ दिया है वर्ना हिंदुओं ने मुसलमानों के मुकाबले उर्दू की कहीं ज्यादा खिदमत की है और हिंदी के बहुत से लेखकों की पृष्ठभूमि उर्दू ही रही है जिसकी वजह से उनकी रचनाओं की भाषा में एक अलग ही रवानगी है। 

1948 में इलाहाबाद में जन्मीं नासिरा को साहित्य रचना का हुनर विरासत में मिला। उनकी बड़ी बहन उस समय गज़ल कहती थीं और अफसाना निगार थीं। उनके भाई और पिता भी कलम के धनी रहे। अपने परिवार में लेखन के बारे में जानकारी देते हुए वह बताती हैं कि सांस लेने के सिलसिले की तरह परिवार में कलम चलाने की रवायत थी। उन्होंने तीसरी कक्षा में पढ़ने के दौरान पहली कहानी लिखी, जिसे बाकायदा सांत्वना पुरस्कार भी मिला। 

नासिरा शर्मा ने फारसी भाषा और साहित्य में एम. ए. किया है। हिन्दी उर्दू, अंग्रेज़ी, फारसी एवं पश्तो भाषाओं पर उनकी गहरी पकड़ है। वह ईरान, इराक और अफगानिस्तान के समाज और राजनीति के साथ साथ वहां के साहित्य, कला और संस्कृति पर लगातार नजर रखती हैं और उन्होंने एशियाई महाद्वीप के देशों के साहित्य का अनुवाद हिंदी में करने की चुनौती को बखूबी निभाया और हिंदी साहित्य में पहली बार यह प्रयोग करने का श्रेय उन्हें जाता है। 

'अदब की बाईं पसली' शीर्षक से मध्यपूर्व एशियाई तथा पूर्वी मुल्कों के साहित्य की एक पूरी श्रंखला के जरिए उन्होंने इन देशों के समाज की एक तस्वीर कागजों पर उतार दी है। उनका कहना है कि इन किताबों में लिखा एक एक हरफ उनकी रूह से निकला है और उन्होंने 35 वर्ष की मेहनत के बाद छह खंड में साहित्य का यह कीमती नजराना पेश किया है। 

इसमें अपनी बात कहने के लिए उन्होंने अनुवाद, लेख, कहानी, निबंध और उपन्यास को अपना माध्यम बनाया है। जिंदगी और अदब में स्त्री और पुरूष को एक दूसरे का पूरक मानने वाली नासिरा शर्मा का कहना है कि उन्होंने मुस्लिम पृष्ठभूमि पर जो उपन्यास लिखे हैं उन पर हिंदू महिलाओं की प्रतिक्रिया जानने के बाद वह पूरे दावे से कह सकती हैं कि महिलाओं की समस्याओं को हिंदू या मुस्लिम के दायरे में बांधा नहीं जा सकता। 

वर्ष 2016 में उन्हें उनके उपन्याय ‘‘पारिजात’’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था। उनके रचनाकर्म में ‘सात नदियाँ एक समन्दर’, ‘शाल्मली’, ‘ठीकरे की मँगनी’, ‘जि़न्दा मुहावरे’, ‘अक्षय वट’, ‘कुइयाँजान’, ‘ज़ीरो रोड’, ‘अजनबी जज़ीरा’ और ‘कागज़ की नाव‘ प्रमुख रहे हैं। 

आज के दौर को उर्दू का सबसे हसीन दौर बताने वाली नासिरा शर्मा ने अपने ढेरों उपन्यास, कहानी संग्रह, लेख संकलन, अनुवाद, संपादन और रिपोर्ताज संग्रह के जरिए हिंदी के पाठकों को साहित्य की पूंजी से मालामाल कर दिया है और उम्मीद है कि उनकी कलम से आगे भी इसी तरह के और मोती झरते रहेंगे। 

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