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फिर युवाओं से खाली हो रहे हैं जम्मू कश्मीर के आतंकवादग्रस्त क्षेत्र

By सुरेश डुग्गर | Updated: November 25, 2018 14:20 IST

कहीं युवा आतंकवाद की राह पर चल निकले हैं तो कहीं युवा पढ़ाई पूरी करने देश के अन्य भागों में पलायन कर चुके हैं और एक अच्छी खासी युवकों की संख्या विदेशों में नौकरी में जुटी है।

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ठळक मुद्देआतंकवाद के शुरुआती दौर में कस्बों तथा गांवों से युवाओं के लापता होने की संख्या अचानक बढ़ गई थी। आतंकवाद के कारण जो सिलसिले जम्मू कश्मीर के आतंकवादग्रस्त क्षेत्रों में आरंभ हुए थेकितने युवा अपने घरों से लापता हैं या फिर कितने घरों से बाहर हैं कोई अधिकृत आंकड़ा नहीं है।

श्रीनगर, 25 नवम्बर: किसी भी गांव या कस्बे में जाने पर यह हैरानगी का सबब ही हो सकता है कि वहां दिखाई देने वालों में अधिकतर बुजुर्ग तथा महिलाएं ही होंगी। युवा नहीं दिखेंगें। कारण स्पष्ट है। आतंकवाद युवाओं पर भारी पड़ रहा है। कहीं युवा आतंकवाद की राह पर चल निकले हैं तो कहीं युवा पढ़ाई पूरी करने देश के अन्य भागों में पलायन कर चुके हैं और एक अच्छी खासी युवकों की संख्या विदेशों में नौकरी में जुटी है।

यह कथा या दृश्य किसी एक गांव का नहीं है बल्कि आतंकवादग्रस्त प्रत्येक गांव या कस्बा ऐसी कहानी सुनाता है और दृश्य पेश करता है। यह सब आतंकवाद के कारण हुआ है। आतंकवाद के शुरुआती दौर में कस्बों तथा गांवों से युवाओं के लापता होने की संख्या अचानक बढ़ गई थी। लापता होने वाले युवक आतंकवाद का प्रशिक्षण प्राप्त करने सीमा पार पहुंच चुके थे।

आतंकवाद अचानक बढ़ गया तो अभिभावकों ने जवानी की दहलीज पर कदम रखने वाले अपने युवा बेटों को आतंकवाद की आंच से बचाने की खातिर उन्हें घर से दूर देश के अन्य भागों में भिजवा दिया ताकि वे अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें। जबकि बचे खुचे विदेशों में नौकरी की तलाश में निकल पड़े।

आतंकवाद के कारण जो सिलसिले जम्मू कश्मीर के आतंकवादग्रस्त क्षेत्रों में आरंभ हुए थे वे अनवरत रूप से जारी हैं। नतीजतन इन क्षेत्रों में युवाओं को देखा जाना आज दुर्लभ माना जाता है। ऐसे गांवों या कस्बों में बुजुर्गों तथा महिलाओं के अतिरिक्त सिर्फ बच्चों को ही देखा जा सकता है।

कितने युवा अपने घरों से लापता हैं या फिर कितने घरों से बाहर हैं कोई अधिकृत आंकड़ा नहीं है। हालांकि घर बार छोड़ पढ़ाई करने तथा विदेशों में नौकरी करने के लिए जाने वालों की तो आसानी से गिनती की जा सकती है मगर सीमा को लांघ पाकिस्तान जाने वालों की गिनती आसान नहीं है। सीमा पार जाने वालों की गिनती इन युवकों की मुठभेड़ों में होने वाली मौतांें के उपरांत ही हो पाती है।

असल में जब बड़ी संख्या में युवक पाकिस्तानी एजेंटों के सब्ज बागों में बह कर सीमा पार चले गए तो ही उनके अभिभावकों की नींद खुली थी। अपने अन्य बच्चों के भविष्य की खातिर फिर उन्होंने हाथ पांव मारने आरंभ कर दिए। बड़े बेटों को तो कहीं भिजवा दिया गया लेकिन छोटे बच्चों के लिए कुछ नहीं हो पाया तो उन्हें अपने साथ रखने की मजबूरी सहन करनी पड़ी। हालंाकि अपने बच्चों के भविष्य की खातिर तो सैंकड़ों परिवारों ने पलायन का रास्ता भी अपनाया है।

वैसे जिन गांवों तथा कस्बों में आतंकवाद ने ताजा ताजा पांव फैलाए हैं वहां के लोगों को संभलने में देर लगी है। उन्हें तभी चौंक जाना पड़ा जब उनके बच्चों को सेना ने आतंकवादियों के कब्जे से छुड़वाया जिन्हें जबरदस्ती सीमा पार आतंकवाद के प्रशिक्षण के लिए ले जाया जा रहा था। जम्मू तथा कश्मीर मंडलों के कई गांवों से ऐसे करीब 490 बच्चों को आतंकवादियों तथा पाक एजेंटों के कब्जे से पिछले पांच साल के दौरान रिहा करवाया गया है जिन्हें जवान होने से पूर्व ही आतंकवादी बनाने की मुहिम चलाई गई थी।

नतीजतन आतंकवादग्रस्त क्षेत्रों की यह बदकिस्मती ही कही जा सकती है कि अधिकतर में आज युवा नहीं मिलते। विशेषकर संपन्न परिवारों के तो सभी बच्चे अपने गांव को छोड़ सुरक्षित शहरों में शरण लिए हुए हैं तो अन्य परिवारों के 14 साल के ऊपर बेटे कहीं ओर हैं। हालांकि इतना अवश्य है कि 14 वर्ष से कम की आयु के बेटोें की चिंता इन परिवारों को अवश्य सताती रहती है।

यह भी एक कड़वी सच्चाई है आतंकवादग्रस्त क्षेत्रों की कि वहां के अधिकतर युवक मौत के घाट उतर चुके हैं। जो आतंकवादी बन गए उन्हें सुरक्षाबलों ने मार गिराया और जिन्होंने आतंकवाद का विरोध किया उन्हें आतंकवादियों ने मार डाला। अर्थात दोनों ओर से जम्मू कश्मीर के युवक ही आतंकवाद की चक्की में पिसे गए हैं।

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