Madrasa Education: शिक्षा के लिए मदरसा सही नहीं?, एनसीपीसीआर ने सुप्रीम कोर्ट में कहा- इस्लाम को करता है महिमामंडित!
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: September 12, 2024 14:57 IST2024-09-12T14:56:07+5:302024-09-12T14:57:21+5:30
Madrasa Education: एनसीपीसीआर ने कहा कि मदरसों के पाठ्यक्रम में एनसीईआरटी की कुछ ही पुस्तकों से पढ़ाना शिक्षा प्रदान करने के नाम पर ‘‘मात्र दिखावा’’ है तथा यह सुनिश्चित नहीं करता है कि बच्चों को औपचारिक तथा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल रही है।

सांकेतिक फोटो
Madrasa Education: राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने उच्चतम न्यायालय से कहा है कि मदरसे बच्चों के लिए ‘उचित शिक्षा’ प्राप्त करने के लिहाज से ‘अनुपयुक्त’ हैं और वहां दी जाने वाली शिक्षा ‘व्यापक नहीं’ है तथा शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई) के प्रावधानों के विरुद्ध है। आयोग ने शीर्ष अदालत से कहा कि जो बच्चे औपचारिक स्कूल शिक्षा प्रणाली में नहीं हैं, वे प्राथमिक शिक्षा के अपने मौलिक अधिकार से वंचित हैं, जिसमें मध्याह्न भोजन, स्कूल की वेशभूषा आदि जैसे अधिकार शामिल हैं। एनसीपीसीआर ने कहा कि मदरसों के पाठ्यक्रम में एनसीईआरटी की कुछ ही पुस्तकों से पढ़ाना शिक्षा प्रदान करने के नाम पर ‘‘मात्र दिखावा’’ है तथा यह सुनिश्चित नहीं करता है कि बच्चों को औपचारिक तथा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल रही है।
आयोग ने कहा, ‘‘मदरसा न केवल ‘उचित’ शिक्षा प्राप्त करने के लिए अनुपयुक्त स्थान है, बल्कि यहां आरटीई अधिनियम की धारा 19, 21, 22, 23, 24, 25 तथा 29 के तहत प्रदत्त अधिकारों का भी अभाव है।’’ एनसीपीसीआर ने शीर्ष अदालत में दायर अपनी लिखित दलील में कहा, ‘‘इसके अलावा, मदरसे न केवल शिक्षा के लिए असंतोषजनक और अपर्याप्त मॉडल पेश करते हैं, बल्कि उनके काम करने का तरीका भी मनमाना है, जिसमें पूरी तरह से मानकीकृत पाठ्यक्रम और कार्यप्रणाली का अभाव है।’’
आयोग ने कहा कि आरटीई अधिनियम, 2009 के प्रावधानों का अभाव होने के कारण, मदरसे 2009 के अधिनियम की धारा 21 के अनुरूप अधिकारों से वंचित हैं। उसने कहा, ‘‘मदरसे मनमाने तरीके से काम करते हैं और संवैधानिक आदेश, आरटीई अधिनियम और किशोर न्याय अधिनियम, 2015 का पूरी तरह उल्लंघन करते हैं।
इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि ऐसे संस्थान में शिक्षा प्राप्त करने वाला बच्चा स्कूल में प्रदान किए जाने वाले स्कूली पाठ्यक्रम के बुनियादी ज्ञान से वंचित रहेगा।’’ आयोग के अनुसार, ‘‘एक स्कूल को आरटीई अधिनियम, 2009 की धारा 2 (एन) के तहत परिभाषित किया गया है, जिसका अर्थ है प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने वाला कोई भी मान्यता प्राप्त स्कूल।
इस परिभाषा के दायरे से बाहर रहने वाले मदरसे को बच्चों या उनके परिवारों को मदरसा शिक्षा प्राप्त करने के लिए मजबूर करने का कोई अधिकार नहीं है।’’ उसने कहा कि अधिकांश मदरसे छात्रों को समग्र वातावरण प्रदान करने में विफल रहते हैं, जिसमें सामाजिक कार्यक्रमों की योजना बनाना या ‘अनुभवात्मक शिक्षा’ के लिए पाठ्येतर गतिविधियां शामिल हैं।
लगभग 17 लाख मदरसा छात्रों को राहत देते हुए शीर्ष अदालत ने पांच अप्रैल को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस आदेश पर रोक लगा दी थी जिसमें उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 को रद्द कर दिया गया था और इसे ‘असंवैधानिक’ और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करने वाला बताया गया था।
प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने केंद्र, उत्तर प्रदेश सरकार और अन्य को उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ याचिकाओं पर नोटिस जारी किए थे। शीर्ष अदालत ने कहा कि क्या उच्च न्यायालय ने ‘प्रथम दृष्टया’ अधिनियम के प्रावधानों को गलत समझा है, जो किसी भी धार्मिक शिक्षा का प्रावधान नहीं करता है।
उच्च न्यायालय ने 22 मार्च को उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 को ‘असंवैधानिक’ करार देते हुए राज्य सरकार से छात्रों को औपचारिक स्कूली शिक्षा प्रणाली में समायोजित करने को कहा था। अधिवक्ता अंशुमान सिंह राठौर द्वारा दायर रिट याचिका पर उच्च न्यायालय ने इस कानून को अधिकारों से परे (अधिकारातीत) घोषित कर दिया था। इसमें कहा गया था कि राज्य को ‘‘धार्मिक शिक्षा के लिए बोर्ड बनाने या केवल किसी विशेष धर्म और उससे जुड़े दर्शन के वास्ते स्कूली शिक्षा के लिए बोर्ड स्थापित करने का कोई अधिकार नहीं है।’’