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कश्मीरी विस्थापित बिना निर्वाचन क्षेत्रों के मतदाता हैं, संसदीय क्षेत्र कश्मीर में और मतदान होता है जम्मू में

By सुरेश एस डुग्गर | Updated: March 21, 2022 16:58 IST

विस्थापित कश्मीरी पंडित पिछले 32 सालों से होने वाले सभी लोकसभा तथा विधानसभा चुनाव में जम्मू और देश के अन्य हिस्सों से मतदान का प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन जिस निर्वाचन क्षेत्र के लिए वो वोट देते हैं उस जगह से उनका अब कोई लेनादेना नहीं है।

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ठळक मुद्देकश्मीर के करीब 6 जिलों के 46 विधानसभा क्षेत्रों के मतदाता आज जम्मू में बतौर विस्थापित रह रहे हैंनियमों के मुताबिक मतदाता का पंजीकरण उस क्षेत्र के लिए मान्य है, जहां वो निवास करते हैंजबकि कश्मीरी विस्थापित उन निर्वाचन क्षेत्रों के लिए वोट करते हैं, जिसे वो दशकों पहले छोड़ चुके हैं

जम्मू: उग्रवाद और आतंक की दहशत से भरे 90 के दशक में कश्मीरी पंडितों द्वारा घाटी से पलायन किये जाने पर बनी फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' ने एक बार फिर से उन्हें चर्चा में ला दिया है। लेकिन क्या आप कश्मीरी पंडितों के मामले में एक अनेखी बात जानते हैं। जी हां, बात बड़ी अजीब सी है लेकिन पूरी तरह से सच है।

क्या आपने कभी आपने ऐसे मतदाताओं को देखा है जो बिना लोकसभा या विधानसभा क्षेत्र के मतदान करते हों। वो भी एक-दो या फिर सौ-पांच सौ नहीं बल्कि पूरे दो लाख। जी हां, इन मतदाताओं को कश्मीरी विस्थापित कहा जाता है। जो पिछले 32 सालों से होने वाले सभी लोकसभा तथा विधानसभा चुनाव में अपने मत का प्रयोग करते चले आ रहे हैं, भले ही वो उन क्षेत्रों को दशकों पहले छोड़ चुके हैं।

एक तरह से देखा जाए तो कश्मीरी पंडितों के साथ यह राजनीतिक नाइंसाफी है। कानून के मुताबिक मतदाता को उन क्षेत्रों में पंजीकृत होना चाहिए जहां वे रह रहे हैं लेकिन सरकार ऐसा करने को इसलिए तैयार नहीं है क्योंकि वह समझती है कि ऐसा करने से कश्मीरी विस्थापितों के दिलों से वापसी की आस समाप्त हो जाएगी।

नतीजतन कश्मीर के करीब 6 जिलों के 46 विधानसभा क्षेत्रों के मतदाता आज भी जम्मू में रह रहे हैं। इनमें से श्रीनगर जिले के सबसे अधिक मतदाता हैं। तभी तो कहा जाता रहा है कि श्रीनगर जिले की 10 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने वाले मतदाताओं का भविष्य इन्हीं विस्थापितों के हाथों में होता है। जिन्हें हर बार उन विधानसभा तथा लोकसभा क्षेत्रों के लिए मतदान करना पड़ा है, जहां अब लौटने की कोई उम्मीद उन्हें नहीं है।

उन्हें हर बार लोकसभा क्षेत्रों से खड़े होते उम्मीदवारों को जम्मू या फिर देश के अन्य भागों में बैठ कर चुनना होता है। उनकी पीड़ा का एक दुखद पहलू यह है कि जम्मू में आकर होश संभालने वाले युवा मतदाताओं को भी जम्मू के मतदाता के रूप में पंजीकृत करने की बजाए कश्मीर घाटी के मतदाता के रूप में स्वीकार किया गया है। इसका मतलब यह हुआ कि उन युवाओं को उन लोकसभा तथा विधानसभा क्षेत्रों के लिए मतदान करना पड़ता है जिनकी सूरत भी अब उन्हें याद नहीं है।

हालांकि चुनावों में हमेशा स्थानीय मुद्दों को नजर में रख कर मतदाता वोट डालते रहे हैं तथा नेता भी उन्हीं मुद्दों के आधार पर वोट मांगते रहे हैं। लेकिन कश्मीरी विस्थापित मतदाताओं के साथ ऐसा नहीं है और न ही उनसे वोट मांगने वालों के साथ ऐसा है। असल में इन विस्थापितों के मुद्दे जम्मू से जुड़े हुए हैं जिन्हें सुलझाने का वायदा कश्मीर के लोकसभा क्षेत्रों के उम्मीदवार कर नहीं सकते। लेकिन इतना जरूर है कि उनसे वोट मांगने वाले प्रत्याशी उनकी वापसी के प्रति अवश्य वायदे करते रहे हैं।

लेकिन कश्मीरी विस्थापितों को अपनी वापसी के प्रति किए जाने वाले वायदों से कुछ लेना देना नहीं है क्योंकि पिछले 32 सालों में हुए अलग-अलग चुनावों में यही वायदे उनसे कई बार किए जा चुके हैं। जबकि वायदे करने वाले इस सच्चाई से वाकिफ हैं कि आखिरी बंदूक के शांत होने से पहले तक कश्मीरी विस्थापित कश्मीर वापस नहीं लौटना चाहेंगे और बंदूकें कब शांत होंगी यह कोई नहीं कह सकता है।

तालाब तिल्लो के विस्थापित शिविर में रहने वाले मोती लाल बट अब नेताओं के वायदों से ऊब चुके हैं। वह जानते हैं कि ये चुनावी वायदे हैं जो कभी पूरे नहीं हो पाएंगे। एक अन्य विस्थापित बीएल भान कहते हैं, "हमें वापसी के वायदे से फिलहाल कुछ लेना-देना नहीं है। हमारी समस्याएं वर्तमान में जम्मू से जुड़ी हुई हैं जिन्हें हल करने का वायदा कोई नहीं करता है।" 

टॅग्स :जम्मू कश्मीरJammuचुनाव आयोग
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