लखनऊ: यमुना के किनारे बसे शामली और सहारनपुर जिलों में पड़ने वाली कैराना लोकसभा सीट पर इस बार भी दिलचस्प चुनावी जंग देखने को मिलेगी। इस लोकसभा क्षेत्र में बीते एक दशक से हिंदुओं के पलायन का मुद्दा सियासी पहचान बन चुका है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सीनियर नेता हुकुम सिंह ने इस मुद्दे को उठाकर वर्ष 2014 के चुनावों में इस सीट से जीत हासिल ही थी, लेकिन उनकी बेटी मृगांका सिंह उसे संजोकर नहीं रख सकी।
ऐसे में पार्टी को वर्ष 2019 के चुनाव में प्रदीप सिंह को चुनाव मैदान में उतरना पड़ा, तो पीएम मोदी के नाम पर प्रदीप सिंह को क्षेत्र के लोगों ने चुनाव जीता दिया। अब फिर पार्टी ने प्रदीप सिंह चौधरी को चुनाव मैदान में उतारा है। यहां उनका मुकाबला इस सीट से सांसद रह चुकी तबस्सुम हसन की बेटी इकरा हसन से है। इकरा हसन समाजवादी पार्टी (सपा) और कांग्रेस गठबंधन की उम्मीदवार हैं। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने अभी इस सीट से अपने उम्मीदवार को चुनाव मैदान में उतारा नहीं हैं।
भाजपा और सपा में मुक़ाबला खेती और किसानी वाले कैराना लोकसभा का संगीत के क्षेत्र में भी बड़ा दखल है। उस्ताद करीम खां के जरिए यहां किराना घराने की शुरुआत हुई थी। यह वह घराना है, जिसने खयाल गायकी को एक नया रंग दिया। भीमसेन जोशी इसी घराने के शागिर्द थे, जिन्होने मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा को आवाज दी थी। अब यह अलग बात है कि कैराना के लोगों को किसी एक सियासतदान के साथ लगातार सुर मिलाने की आदत नहीं हैं। इस कारण इस सीट से गिने चुने को ही लगातार दूसरी जीत मिली है। कैराना के लोगों को राजनीति में नया चेहरा भाता है।
शायद यहीं वजह है कि सपा ने इकरा हसन को चुनाव मैदान में उतारा है। फिलहाल कैराना सीट पर सपा और कांग्रेस एक मंच पर हैं। वहीं दूसरी तरफ भाजपा और राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के मंच पर। बसपा एकला चलो की राह पर है। यहां मुख्य मुक़ाबला प्रदीप सिंह और इकरा हसन के बीच ही है। इकरा के भाई नाहिद हसन सपा के टिकट पर कैराना विधानसभा सीट से विधायक हैं। इस लोकसभा सी बाकी चार विधानसभा सीटों में से दो सीट भाजपा और दो रालोद के पास हैं।
इस लोकसभा सीट पर सपा की उम्मीद पीड़ीए (पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक) फार्मूले पर टिकी है, जबकि भाजपा राम मंदिर के राममय माहौल में मंडल और कमंडल दोनों को साधने में जुटी है। भाजपा नेताओं का कहना है कि सामाजिक समीकरणों के साथ गैर मुस्लिम वोटो के ध्रुवीकरण से उसकी जीत की राह बनेगी। जबकि इकरा हसन जो लंदन से पढ़ाई पूरी करने के बाद राजनीति में उतरी हैं, उनका दावा है कि कैराना ने हमेशा ही राजनीति ने बदलाव को महत्व दिया है। यहां की जनता ने कैराना के पहले चुनाव में स्थापित दलों के बजाए एक निर्दलीय प्रत्याशी को चुनाव जिताया था।
इस बार यह इतिहास दोहराया जाएगा और उनकी जीत होगी। यह दावा करने वाली इकरा हसन को राजनीति विरासत में मिली। उनके दादा अख्तर हसन वर्ष 1984 में कैराना लोकसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते थे। उनके पिता लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा और विधान परिषद यानी चारों सदनों के सदस्य रह चुके हैं। इसके लिए उनका नाम गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी दर्ज किया गया था। अब देखना यह है कि बीता लोकसभा चुनाव जीतने वाले प्रदीप सिंह और भाजपा इस बार इकरा की चुनौती से कैसे निपटेंगे।
कैराना का जातीय समीकरण
पहले लोकसभा चुनाव में कैराना सीट से जाट नेता यशपाल सिंह ने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जीत हासिल की थी। यह क्षेत्र मुस्लिम और जाट बाहुल्य क्षेत्र है। पश्चिमी यूपी की चर्चित कैराना सीट पर मुस्लिम वोटर्स निर्णायक की भूमिका में होते हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, शामली जिले में कुल 12,73,578 वोटर्स हैं जिसमें 57.09% वोटर्स हिंदू हैं, जबकि 41.73% आबादी मुसलमानों की हैं।
इसमें कैराना में मुस्लिम लोगों की आबादी ज्यादा है। यहां की साक्षरता दर 81.97% है। इस सीट में शामली जिले के कैराना, शामली, थाना भवन गंगोह और नकुड़ विधानसभा क्षेत्र आते हैं। जर्जर सड़कों और गन्ने की शानदार फसल वाला यह इलाका दंगा प्रभावित रहा है। यह क्षेत्र गन्ना किसानों के इलाके के नाम से जाना जाता है,पर किसानों की बदहाली किसी से छिपी नहीं। यहां कोई खास उद्योग-धंधे नहीं होने के कारण बेरोजगारी भी एक बड़ी समस्या है।