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ब्लॉग: भारतीयों के लिए भारतीयता विचार व भाव का पवित्र विषय

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: February 17, 2024 17:51 IST

भारत और उसके सत्व या गुण-धर्म रूप भारतीयता के स्वभाव को समझने की चेष्टा यथातथ्य वर्णन के साथ ही वांछित या आदर्श स्थिति का निरूपण भी हो जाती है। भारतीयता एक मनोदशा भी है। उसे समझने के लिए हमें भारतीय मानस को समझना होगा। यह सिर्फ ज्ञान का ही नहीं बल्कि भावना का भी प्रश्न है और इसमें जड़ों की भी तलाश सम्मिलित है।

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ठळक मुद्देभारतीयता एक मनोदशा भी हैउसे समझने के लिए हमें भारतीय मानस को समझना होगायह सिर्फ ज्ञान का ही नहीं बल्कि भावना का भी प्रश्न है

भारत और उसके सत्व या गुण-धर्म रूप भारतीयता के स्वभाव को समझने की चेष्टा यथातथ्य वर्णन के साथ ही वांछित या आदर्श स्थिति का निरूपण भी हो जाती है। भारतीयता एक मनोदशा भी है। उसे समझने के लिए हमें भारतीय मानस को समझना होगा। यह सिर्फ ज्ञान का ही नहीं बल्कि भावना का भी प्रश्न है और इसमें जड़ों की भी तलाश सम्मिलित है।

आज इस उपक्रम के लिए कई विचार-दृष्टियां उपलब्ध हैं जिनमें पाश्चात्य ज्ञान-जन्य दृष्टि निश्चित रूप से प्रबल है जिसने औपनिवेशिक अवधि में एक आईने का निर्माण किया जो राजनीतिक–आर्थिक वर्चस्व के साथ लगभग सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत हो गया यद्यपि उसके पूर्वाग्रह दूषित करने वाले रहे हैं। 

इस क्रम में अंग्रेज़ी राज का अन्य भारतीय जनों द्वारा आत्म के रूप में अंगीकार किया गया। वेश-भूषा, राज-काज और बात व्यवहार में अंग्रेजियत आभिजात्य और श्रेष्ठ होने का असंदिग्ध पर्याय और देसी (भारतीय!) दोयम दर्जे का बना दिया गया। अंग्रेजों ने भारत को इंडिया बना दिया और हमने भी संविधान में वैसे ही दर्ज किया। इंडिया दैट इज भारत!

भारतीयता की अवधारणा भारत से अविभाज्य रूप से सम्पृक्त है जो निश्चय ही पृथ्वी का एक भू-भाग भी है पर वह भू–भाग मात्र ही नहीं है। भारतीयों के लिए वह मुख्यतः विचार तथा भाव का पवित्र विषय है। वह हमारी चेतना या सांस्कृतिक आत्मबोध का नियामक एक प्राथमिक अंश है। स्वाभाविक है भारत की स्थिति, प्रतीति और अनुभूति का सत्य निरपेक्ष और अर्थशून्य न हो कर द्रष्टा, प्रेक्षक और भावक की पृष्ठभूमि यानी वैचारिक तैयारी और संलग्नता पर ही निर्भर करेगा। 

मनुष्य की वाचिक ढंग की प्राचीनतम रचना वेद के समय से ही भारत वसुंधरा की छवि जीवनदायिनी माता के रूप में संकल्पित की जाती रही है। हाड़ मांस का बच्चा माता के शरीर से निर्मित होता है, गर्भ में उसके रक्त से पलता है, आकार पाता है और जन्म के उपरांत उसके दूध के आहार पर जीता है. माता की उपस्थिति संतति की अपरिहार्यता है। यद्यपि माता और संतति के मध्य का यह स्वाभाविक सम्बन्ध एक चिरंतन सत्य है और तादात्मीकरण का सहज आधार बनाता है तथापि इस सम्बन्ध को व्यापक सामाजिक–आर्थिक और राजनैतिक परिवेश न्यस्त रुचि और लाभ के मद्देनजर भिन्न-भिन्न अर्थ देता रहता है। 

फलतः विभिन्न काल खंडों में सामाजिक यथार्थ और सामाजिक स्मृति के रूप में अस्मिता-निर्मिति अलग-अलग रूप लेती रहती है या कि उसके अलग-अलग पक्षों पर बल दिया जाता रहा है। साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी और हिंसा तथा शोषण को प्रश्रय देने की प्रवृत्ति का कुछ क्षेत्रों में बाहुल्य इस परिघटना का प्रमाण देते आ रहे है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो सभ्यता और संस्कृति की सतत प्रवाहमान मानवी गाथा में अनेक प्रवृत्तियों का संघात मिलता है। इसमें निरंतरता और परिवर्तन दोनों ही धाराओं को आकार मिलता रहा है।

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