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कानूनी विशेषज्ञों ने मोदी सरकार के 'जनरल आरक्षण' पर कहा- ये विधेयक ‘असंवैधानिक’ और ‘राजनीतिक हथियार’

By भाषा | Updated: January 9, 2019 02:16 IST

इस विधेयक में सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों को नौकरियों एवं शैक्षणिक संस्थाओं में दाखिले में 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया है।

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कानून के विशेषज्ञों ने आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों को नौकरियों एवं शिक्षा में आरक्षण देने के लिए लोकसभा में मंगलवार को पेश किए गए विधेयक को ‘‘असंवैधानिक’’ और ‘‘राजनीतिक हथियार’’ करार देते हुए कहा है कि इसे अदालत में चुनौती दिए जाने की संभावना है।

इस विधेयक में सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों को नौकरियों एवं शैक्षणिक संस्थाओं में दाखिले में 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया है।

वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी, राजीव धवन और अजित सिन्हा ने सोमवार को केंद्रीय कैबिनेट द्वारा मंजूर किए गए संविधान (124वां संशोधन) विधेयक, 2019 के कानूनी परीक्षा में पास होने को लेकर संदेह जाहिर किया।

महज एक ‘‘चुनावी पैंतरा’’

द्विवेदी ने इसे ‘‘चुनावी पैंतरा’’ करार दिया जबकि धवन ने इस विधेयक का कड़ा विरोध करते हुए इसे ‘‘असंवैधानिक’’ करार दिया।

सिन्हा ने कहा कि इस विधेयक को लेकर संविधान के अनुच्छेद 15 में संशोधन करना होगा। उन्होंने कहा कि इंदिरा साहनी मामले में उच्चतम न्यायालय का फैसला भी इस विधेयक की राह में कानूनी अड़चन साबित हो सकता है।

द्विवेदी ने कहा कि असल सवाल तो यह है कि आरक्षण के प्रावधान से रोजगार की समस्याएं किस हद तक सुलझेंगी।

उन्होंने कहा, ‘‘यह चुनावी वक्त है, इसलिए सरकारें कदम उठा रही हैं। अगर लोगों को इससे फायदा होता है तो ठीक है। लेकिन असल सवाल है कि आरक्षण के प्रावधान से रोजगार की समस्याएं किस हद तक सुलझेंगी।’’ 

द्विवेदी ने यह भी कहा कि इंदिरा साहनी मामले में उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण की समग्र सीमा 50 फीसदी तय कर दी थी, लेकिन इसे ‘‘अकाट्य नियम’’ के तौर पर नहीं लेना चाहिए कि किसी भी हालात में यह सीमा इससे आगे नहीं बढ़ सकती।

उन्होंने कहा, ‘‘दूर-दराज के कुछ इलाकों के बाबत उन्होंने पहले ही कह दिया है कि यदि विशेष कारण हों तो आप (सीमा) बढ़ा सकते हैं। अदालत को इस बात का परीक्षण करना होगा कि इस 10 फीसदी की बढ़ोतरी की अनुमति दी जा सकती है कि नहीं और इसकी अनुमति देना तार्किक होगा कि नहीं।’’ 

उच्चतम न्यायालय की नौ सदस्यीय पीठ ने 1992 में इंदिरा साहनी मामले में तरक्की में अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए आरक्षण की अनुमति 16 नवंबर 1992 से अगले पांच वर्षों के लिए की थी।

बहरहाल, धवन ने इस विधेयक पर कड़ा विरोध जाहिर करते हुए इसे कानूनी रूप से असंवैधानिक करार दिया। 

ये विधेयक असंवैधानिक है

धवन ने कहा, ‘‘कानूनी तौर पर यह विधेयक निम्नलिखित आधार पर असंवैधानिक है। पहला आधार यह है कि इंदिरा साहनी मामले में फैसले के बाद ‘आर्थिक रूप से पिछड़ा तबका’ आरक्षण का आधार नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें नौ न्यायाधीशों में से छह न्यायाधीशों ने एससी-एसटी को नौकरियों में तरक्की के लिए आरक्षण की अनुमति दी थी। शेष तीन ने कहा कि आरक्षण के लिए पैमाना सिर्फ आर्थिक ही होना चाहिए, लेकिन फिर एससी-एसटी और ओबीसी जैसा कोई मापदंड नहीं होना चाहिए।’’ 

जानेमाने वकील धवन ने यह भी कहा कि 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान करने से आरक्षण की कुल सीमा बढ़कर 60 फीसदी हो जाएगी और इसकी ‘‘इजाजत नहीं दी जा सकती।’’ 

वरिष्ठ वकील अजित सिन्हा ने कहा कि इस विधेयक को लेकर अनुच्छेद 15 में संशोधन करना होगा, जिसमें कहा गया है कि राज्य धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। उन्होंने कहा कि इंदिरा साहनी मामले में अदालत का फैसला भी कानूनी अड़चन का काम करेगा।

सिन्हा ने कहा, ‘‘इसमें कानूनी अड़चन भी है, क्योंकि इंदिरा साहनी मामले में फैसला है। फिर सवाल यह है कि आरक्षण 50 फीसदी की सीमा से अधिक होना संवैधानिक तौर पर टिकेगा कि नहीं। जहां तक अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का सवाल है, तो आरक्षण के लिए यदि आर्थिक स्थिति एक आधार है तो ठीक है।’’ 

उन्होंने कहा कि आर्थिक पिछड़ेपन का पैमाना यदि जाति, धर्म, संप्रदाय आदि से परे है तो संशोधन में समस्या नहीं होगी। उन्होंने कहा कि यदि आरक्षण की सीमा 50 फीसदी के पार चली जाती है तो निश्चित तौर पर इसे अदालत में चुनौती दी जाएगी। 

धवन ने कहा कि यदि यह विधेयक पारित होता है तो इसे अदालतों का सामना करना होगा, लेकिन यदि यह नाकाम हो जाता है तो ‘‘राजनीतिक हथियार’’ बन जाएगा।

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