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डॉ. एस.एस. मंठा का ब्लॉग: शिक्षा के क्षेत्र में बहुप्रतीक्षित बदलाव लाने का सुनहरा अवसर

By डॉ एसएस मंठा | Updated: June 16, 2019 19:29 IST

महात्मा गांधी ने शिक्षा के संबंध में कहा था कि लोकतंत्र की सफलता के लिए केवल तथ्यों की जानकारी ही पर्याप्त नहीं है बल्कि समुचित शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए. वर्ष 2020 की ओर बढ़ते हुए, नई पीढ़ी हमारे सामने एक तीक्ष्ण सवाल खड़ा कर रही है कि क्या हम स्थिति की गंभीरता का सामना करने के लिए तैयार हैं?

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कें द्र की नई सरकार, जिसका नेतृत्व एक करिश्माई नेता कर रहे हैं, ने लोगों  की अपेक्षाओं को बढ़ा दिया है. प्रगतिशील विचारों वाली कोई भी सरकार सत्ता में आने पर शिक्षा को सर्वाधिक महत्व देती है. वर्तमान सरकार भी ऐसा ही कर रही है. सरकार नई शिक्षा नीति तैयार कर रही है और उम्मीद है कि इसे कुछ माह में ही घोषित कर दिया जाएगा. यह नई शिक्षा नीति कैसी होनी चाहिए?

महात्मा गांधी ने शिक्षा के संबंध में कहा था कि लोकतंत्र की सफलता के लिए केवल तथ्यों की जानकारी ही पर्याप्त नहीं है बल्कि समुचित शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए. वर्ष 2020 की ओर बढ़ते हुए, नई पीढ़ी हमारे सामने एक तीक्ष्ण सवाल खड़ा कर रही है कि क्या हम स्थिति की गंभीरता का सामना करने के लिए तैयार हैं? लाओत्जु ने कहा था कि गीली मिट्टी को बर्तन का आकार देकर उपयोगी बनाया जा सकता है.

इसी तरह नई पीढ़ी को शिक्षा देकर, उनके कौशल को विकसित करके उन्हें रोजगारक्षम बनाने की बड़ी चुनौती हमारे सामने है, जिसके लिए सूक्ष्म नियोजन और समुचित दृष्टिकोण अपनाए जाने की जरूरत है. पूर्व में, शिक्षा क्षेत्र के विस्तार की ओर काफी ध्यान दिया गया है. अनेक नए आईआईटी और आईआईएम बनाए गए और पहले से मौजूद आईआईटी की क्षमता बढ़ाई गई. निजी क्षेत्र में भी शिक्षा का विकास हुआ और अनेक नए उद्योगपति इस क्षेत्र में आए. इसके बावजूद वर्ष 2015 में इंस्टीटय़ूट ऑफ साइंस के दीक्षांत समारोह में इंफोसिस के नारायण मूर्ति ने यह कहते हुए खेद व्यक्त किया था कि आईआईटी से उल्लेखनीय प्रतिभाएं नहीं निकल रही हैं. इसका कारण क्या हो सकता है?

शिक्षा क्षेत्र के विस्तार पर जोर दिए जाने के कारण जो जीईआर (सकल नामांकन अनुपात) दस वर्ष पूर्व 20 था वह आज 25 हो गया है. सरकारी आर्थिक मदद में हर वर्ष कटौती होते जाने के कारण निजी क्षेत्र का महत्व बढ़ा है, लेकिन वहां भी बुनियादी सुविधाएं पर्याप्त नहीं हैं, योग्य और पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं. इसलिए सरकार को शिक्षा क्षेत्र के लिए पर्याप्त निधि उपलब्ध करानी चाहिए.

हमारे स्कूल-कॉलेजों को विद्यार्थियों को चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रेरणा देनी चाहिए, ताकि वे अकादमिक रूप से सफल होने के साथ-साथ आजीवन सीखने की वृत्ति रखने वाले, रचनात्मक और अभिनव विचारक तथा संतुलित दृष्टिकोण से संपन्न बनें. विद्यार्थियों को प्राथमिक मार्गदर्शन शिक्षकों से मिलता है लेकिन प्रायोगिक ज्ञान वे नौकरी करते हुए ही पाते हैं. हालांकि इस राह में अनेक चुनौतियां होती हैं, जिसमें आर्थिक खर्च के साथ ही कार्यबल विकास, कार्य का मूल्यांकन, कौशल विकास, ऑनलाइन शिक्षा की चुनौतियां आदि शामिल हैं.

इसलिए इस संबंध में ऐसी नीति बनाई जानी चाहिए जो छात्र केंद्रित होने के साथ समाज के सभी वर्गो का प्रतिनिधित्व करने और समावेशी विकास के साथ चिंताओं का समाधान करने वाली हों. पश्चिमी देशों की तुलना में हमारे देश की शिक्षा संस्थाएं कम कार्यक्षम हैं. अगर उन्हें बाहरी मदद न मिले तो वे चल नहीं सकतीं. इसलिए हमें अपने विश्वविद्यालयों की व्यवस्था में आमूल परिवर्तन करने की जरूरत है. 

शिक्षा क्षेत्र पर अनेक कारकों का असर पड़ता है, जिन पर हमें विचार करना होगा. शिक्षा क्षेत्र में दुनिया के शीर्ष के 20 देशों में भारत का स्थान नहीं होना निश्चय ही चिंताजनक है. दिलचस्प यह है कि शीर्ष के 20 देशों में शामिल फिनलैंड में स्कूली शिक्षा की शुरुआत उम्र के सातवें वर्ष में की जाती है और छात्रों को कोई होमवर्क नहीं दिया जाता. 13 वर्ष की उम्र तक कोई परीक्षा नहीं ली जाती.

इसलिए अगर हमें प्रगति करनी है तो कई पुरानी संकल्पनाओं को छोड़ना होगा. सरकार को जो व्यापक जनादेश मिला है, उसके मद्देनजर उसके पास शिक्षा क्षेत्र में बदलाव लाने का सुनहरा अवसर है. इसके लिए सभी को सहयोग करना होगा. 

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