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बहुसंख्यकवादी राजनीति के दबाव में है कांग्रेस, उसे वैचारिक स्तर पर साहस दिखाना होगा: अपूर्वानंद

By भाषा | Updated: October 17, 2021 11:36 IST

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नयी दिल्ली, 17 अक्टूबर कांग्रेस पिछले कुछ वर्षों से नेतृत्व और संगठन के स्तर पर संकट से घिरी है। पार्टी में अगले साल संगठनात्मक चुनाव होने हैं लेकिन पार्टी के भीतर ही एक धड़ा नेतृत्व पर सवाल खड़े कर रहा है।

देश की सबसे पुरानी पार्टी की मौजूदा स्थिति को लेकर जानमाने राजनीतिक टिप्पणीकार प्रोफेसर अपूर्वानंद से पेश है “भाषा के पांच सवाल” और उनके जवाब:

सवाल: कांग्रेस की मौजूदा स्थिति और उसमें नेतृत्व के संकट को लेकर आप क्या कहेंगे?

जवाब: कांग्रेस एक अभूतपूर्व स्थिति का सामना कर रही है। इन दिनों अधिकतर राजनीतिक दल बहुसंख्यकवादी राजनीति के दबाव में हैं। उनको बार-बार यह साबित करना पड़ता है कि वो हिंदूवादी हैं। कोई भी दल खुद को धर्मनिरपेक्ष नहीं कहना चाहता। कांग्रेस भी इस राजनीतिक माहौल में काम कर रही है। वह भी एक गहरे राजनीतिक दबाव में है। उसके भीतर इसको लेकर एक संघर्ष चल रहा है।

सवाल: कांग्रेस खुद से जुड़े फैसलों और विचारधारा के स्तर पर भी एक असमंजस की स्थिति में क्यों नजर आ रही है?

जवाब: कांग्रेस के सामने एक दुविधा है जो दूसरों दलों में नहीं है। कांग्रेस ने हमेशा समाज के सभी तबकों को साथ रखने का प्रयास किया है, लेकिन दूसरे दल किसी एक तबके की तरफ से बोलते हैं। चाहे वामपंथी दल ही क्यों न हों। वो भी जब वर्ग की बात कर करते हैं तो कुछ लोगों को अलग रखते हैं। भाजपा भी कुछ लोगों को अलग रखती है। सामाजिक न्याय की बात करने वाले दलों ने बड़े हिस्से को अपने से बाहर रखा, लेकिन कांग्रेस किसी हिस्से को बाहर नहीं रख सकती। यही वजह है कि कांग्रेस इस ऊहापोह में रहती है कि वह कैसे सबको आपने साथ रखे।

यही नहीं, पिछले कुछ वर्षों में यह राजनीतिक भाषा विकसित हुई है कि या तो आप मेरे साथ हो, या मेरे खिलाफ हो। यह भी कांग्रेस के लिए दिक्कत है क्योंकि वह सामूहिकता की बात करती है। ऐसे में उसका मध्यमार्गी विचाराधारा की पार्टी होना भी उसके लिए दिक्कत पैदा कर है।

सवाल: कांग्रेस की बहुसंख्यक समाज में स्वीकार्यता कम क्यों हुई और उससे क्या गलतियां हुईं?

जवाब: कांग्रेस की सबसे बड़ी गलती यह थी कि पिछले कुछ दशकों में वह सत्ता की पार्टी बनकर रह गई। ऐसे में वह विचार और विचारधारा के प्रति लापरवाह हो गई। नेहरू के समय तक पार्टी में धर्मनिरेपक्षता और दूसरे सिद्धांतों को लेकर प्रतिबद्धता थी। बाद में उसको लेकर लापरवाही दिखी। फिर कांग्रेस समझौते करने लगी और त्वरित राजनीतिक लाभ की सोच के साथ समझौते करने लगी। यह पहले शाह बानो और फिर राम मंदिर का ताला खुलवाने के फैसलों में देखने को मिला।

इसके साथ ही, कांग्रेस ने बदलते राजनीतिक परिवेश के हिसाब से कदम नहीं उठाए। कई वर्गों को हिस्सेदारी या राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं दिया। वह कई वर्गों की राजनीतिक अकांक्षाओं को नहीं समझ पाई। वहीं पर कांग्रेस पिछड़ गई।

सवाल: कांग्रेस में अब तो गांधी परिवार के खिलाफ आवाज उठने लगी हैं। क्या पार्टी अतीत में भी ऐसे बुरे दौर से गुजरी है?

जवाब: इन दिनों जिस जी-23 समूह की चर्चा हो रही है उसके वैचारिक रुख को लेकर मुझे जानकारी नहीं हैं। अब तक उन्होंने यह नहीं बताया कि कांग्रेस को मजबूत करने के लिए उनके पास कोई ब्लूप्रिंट (खाका) है या नहीं। ऐसा लगता है कि यह सब पर्दे के पीछे का राजनीतिक दांवपेंच भर है। इन नेताओं में ज्यादातर जननेता नहीं हैं।

अतीत में कांग्रेस कई बार संकटों से घिरी है। 1960 के दशक में पहली बार संकट में आई और कई राज्यों में कांग्रेस विरोधी सरकारें बनी, कांग्रेस में विभाजन तक हो गया था। उस वक्त इंदिरा गांधी कांग्रेस को संभाल ले गईं। इसके बाद 1971 में शरणार्थियों के मुद्दे, 1976 में जेपी आंदोलन और 1977 में चुनावी हार के बाद कांग्रेस संकट से घिरी। 1980 में उबरी और सत्ता में आई।

मैं कह सकता हूं कि 1980 के बाद कांग्रेस लगातार कहीं न कहीं संकट में रही है। उसका एक कारण यह भी रहा है कि पार्टी में ऐसे लोग हावी हो गए जो वैचारिक न होकर रणनीतिक थे। राजीव गांधी के समय यह आरंभ हुआ। यह बिल्कुल नया दौर है। लोकतांत्रिक संस्थाओं पर सवाल उठ रहे हैं, ऐसे में कांग्रेस के लिए यह सबसे चुनौतीपूर्ण समय है। अब पार्टी का फिर से खड़ा होना पहले के मुकाबले ज्यादा मुश्किल होगा।

सवाल: ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल के राष्ट्रीय विकल्प बनने के प्रयासों के बीच कांग्रेस का मौजूदा संकट से उबर पाना कितना चुनौतीपूर्ण होगा?

जवाब: हर पार्टी का काम करने का एक तरीका होता है। यह उथल-पुथल कांग्रेस में चलेगी। उसे राजनीतिक वातावरण की मदद भी नहीं मिल रही है। अगर कांग्रेस के लोग ईमानदारी से लड़ें तो कुछ हो सकता है।

तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को पूरा अधिकार है कि वो पूरे देश में अपना प्रसार करें। कांग्रेस को यह देखना पड़ेगा कि वह इन सबके बीच अपने आप कैसे मजबूत बनाती है। कांग्रेस को विचारधारा के स्तर पर यह साहस पैदा करना होगा कि वह अपने मुख्य मतदाता वर्गों जैसे दलित और मुसलमान के बारे में खुलकर बात करे। कांग्रेस को फिर खड़ा होने के लिए ऐसा करना होगा।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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