हरियाणा चुनाव नतीजेः इन पांच फैक्टर ने बदले चुनावी समीकरण, बहुमत से दूर हो गईं सभी पार्टियां
By बद्री नाथ | Published: October 24, 2019 06:01 PM2019-10-24T18:01:34+5:302019-10-24T18:01:34+5:30
हरियाणा विधान सभा चुनाव काफी रोचक रहा है। हर रोज होने वाले बदलावों की वजह से चुनाव का रोमांच अंतिम दम दौर तक बना रहा। जानें वो पांच फैक्टर जिनसे बदले चुनावी समीकरण, बहुमत से दूर हो गईं सभी पार्टियां...
हरियाणा विधान सभा चुनाव काफी रोचक रहा है। हर रोज होने वाले बदलावों की वजह से चुनाव का रोमांच अंतिम दम दौर तक बना रहा। इस चुनाव में राजनीतिक फ्री लांसर की संकल्पना आई तो दलों के बीच गठबंधन टूटे और दलबदलू नेताओं और नाराज लोगों द्वारा निर्दली उम्मीदवार के रूप में उतरने से नए समीकरण बनें। राष्ट्रीय मुद्दों से प्रादेशिक मुद्दों का अद्भुत संयोग देखने को मिला। मोदी की बात जनता ने नहीं सुनी इसका एक कारण क्षेत्रिय दलों की प्रादेशिक मुद्दों पर बीजेपी को घेरने की रणनीति, लोक लुभावन घोषणा पत्र और खट्टर के विवादित बयान रहे।
इनेलो में टूट कांग्रेस में फूट ने एकजुट बीजेपी को बनाया था सबसे मजबूत
इससे पूर्व बीजेपी के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की जन आशीर्वाद यात्राओं में बीजेपी ने जमीन पर काफी अच्छा माहौल तैयार किया था जिससे बीजेपी एकतरफा चुनाव जीतती नजर आ रही थी। इसी वजह से दूसरे दलों में जानें हेतु नेताओं के लिए सबसे अच्छा विकल्प बीजेपी थी। 6 अगस्त से 20 सितम्बर तक बीजेपी के द्वारा चलाये गए कार्यकर्ता बनाओ अभियान में बीजेपी से हर दल के लोग जुड़े ऐसा बीजेपी की उपलब्धियों नहीं वरन कांग्रेस में फूट और इनेलो में टूट की वजह से हुआ था। अगर कांग्रेस इस दरम्यान जमीन पर सक्रिय रही होती तो इनेलो की टूट का सबसे ज्यादा फायदा कांग्रेस को होता।
सितम्बर महीने के पहले हफ्ते में प्रदेश कांग्रेस में महत्वपूर्ण बदलाव हुए थे जिसके मुताबिक सोनिया गाँधी के करीबी माने जाने वालों की हरियाणा कांग्रेस में जहाँ ताजपोशी हुई थी तो वहीँ राहुल गाँधी के करीबी रहे अशोक तंवर की विदाई हुई थी, इस बदलाव से कांग्रेस खेमे में एक बार फिर से उत्साह का संचार हो गया था। बदली हुई परिस्थिति में कांग्रेस में जान आ गयी थी।
हुड्डा ने टाल दिया नई पार्टी बनाने का फैसला
19 अगस्त को रोहतक अनाज मंडी में बड़ी जनसभा करके हुड्डा ने जहाँ अपने पार्टी लाइन से ऊपर आकर 370 का समर्थन किया वहीँ पार्टी का घोषणापत्र भी हरियाणा की जनता के समक्ष रख दिया। रैली की तैयारियां जिस तरीके से की गई थीं वैसे यह लग रहा था कि हुड्डा गुट कोई बड़ा धमाका करेगा। पूरे देश को ऐसा लगा था कि हुड्डा कांग्रेस से अलग रस्ते पर जाने का एलान करेंगे लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। लेकिन इससे एक बात हुड्डा के पक्ष में गई ये थी कि वे कांग्रेस पार्टी पर जबरदस्त दबाव बनाने में सफल हुए। ऐसी बातें आई थी कि हुड्डा गुट मायावती से गठबंधन के लिए सम्पर्क साध रहा है लेकिन दुष्यंत ने इसी बीच मायावती से गठबंधन करके हुड्डा को नए पार्टी बनाने की योजना को बिराम लगाने को विवश कर दिया।
बसपा और जेजेपी गठबंधन में टूट ने कांग्रेस को विकल्प के रूप में उभारा
हुड्डा की रोहतक के अनाज मंडी में बुलाई गई रैली से पूर्व तक ऐसी बाते मीडिया और सोशल मीडिया पर तैरती रहीं कि कांग्रेस हाई कमांड हुड्डा को हरियाणा कांग्रेस की कमान सौंपेगा लेकिन कांग्रेस खेमे में काफी मंथन चला। हुड्डा को उम्मीदों पर उम्मीदे दी जाती रहीं लेकिन ये रैली बिना किसी धमाके के समाप्त हो गई। हुड्डा ने ना किसी दल की घोषणा की और न ही उन्हें कांग्रेस पार्टी ने अध्यक्ष पद दिया। इस रैली में हुड्डा ने कांग्रेस पार्टी की बुराई भी की और नया दल भी नहीं बनाया। रैली के बाद हुड्डा ने 35 सदस्यीय समिति बनाकर कांग्रेस पार्टी पर दबाव बनाने का मात्र अंतिम रास्ता चुना।
हुड्डा अपने समर्थकों के साथ अपने पंत मार्ग निवास पर डेरा डाले रहे। चुनाव के मुहाने पर खड़े जिस कांग्रेस पार्टी के नेताओं को जहाँ जमीन पर दिखना चाहिए था वो दिल्ली में हुड्डा जी के दरबार की शोभा बढ़ा रहे थे। इस समय तंवर गुट हरियाणा की जमीन पर सक्रिय था। यह कांग्रेस और हुड्डा गुट के लिए बड़ा ही असमंजस का दौर था लेकिन भूपिंदर सिंह हुड्डा और शैलजा की ताजपोशी के पहले जहाँ कांग्रेस में आंतरिक विरोध अपने चरम पर था। वहीं हुड्डा की ताजपोशी के बाद बीजेपी खेमे में आतंरिक विरोध के सुर पनपते दिखे। अहिरवार के सबसे लोकप्रिय नेता और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री राव वीरेंद्र सिंह के बेटे राव इन्द्रजीत सिंह और सर छोटू राम की विरासत के वारिस और बीजेपी के सबसे ज्यादा जनाधार वाले नेता चौधरी वीरेंद्र सिंह के द्वारा बीजेपी से बगावत की खबरें आईं। इसी क्रम में कांग्रेस पार्टी में अशोक अरोड़ा, गगंजोत संधू और पूर्व सांसद जेपी की कांग्रेस में ज्वाइनिग से काफी मजबूत विकल्प के रूप में देखा जाने लगा।
बदलती परिस्थितियों में कैसे हुए बदलाव
अगर एक महीने पहले की बात की जाए तो बीजेपी 75 क्या 80 सीटों पर जीतती नजर आ रही थी लेकिन चुनाव खत्म होते–होते बीजेपी 45 सीटों के आसपास ही दिखने लगी। ऐसा बीजेपी द्वारा की गई टिकट वितरण में गलतियों, खट्टर के विवादित बयानों और अपने प्रदेश सरकार की उपलब्धियों के बजाय 370 पर फोकस करने से हुआ। मुलभुत मुद्दों के आधार पर कांग्रेस व जेजेपी के द्वारा लाये गए घोषणापत्रों से माहौल काफी कुछ बदला गया। 4 सितम्बर को कांग्रेस संगठन में किये गए बदलाव और इसके बाद ही मायावती द्वारा जजपा से समर्थन वापस लेने और इसी के तुरंत बाद अशोक अरोड़ा, गंगनजोत सिंह संधू और जेपी के कांग्रेस ज्वॉइन करने के बाद ही पूरी लड़ाई कांग्रेस व बीजेपी के बीच केन्द्रित हो गई थी।
उतार-चढ़ाव से जूझते हुए जेजेपी बनी तीसरा विकल्प
बसपा से गठबंधन टूटने के बाद बैकफुट पर जा चुकी जेजेपी ने बीजेपी व कांग्रेस के द्वारा की गई हर गलतियों को अपने पक्ष में जोड़ा। परिणाम स्वरुप बीजेपी व कांग्रेस के टिकट वितरण से नाराज लोगों को जोड़कर जेजेपी ने काफ़ी अच्छी रणनीतिक बढ़त हासिल की। कांग्रेस के अशोक तंवर के जाने से उतना ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। अगर 10 दिन पहले दुष्यंत के साथ मंच साझा करते या फिर केवल दुष्यंत के साथ जाते तो कांग्रेस को नुकसान हो जाता।