देश के महान लेखक और कवि रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 को कोलकता में हुआ था। बंगाली परिवार में जन्म लेने के बाद टैगोर जैसे-जैसे बड़े हुए साहित्य की ओर उनकी रूझान बढ़ती गई। ऐसे भी माना जाता है कि बंगाली संस्कृति के लोगों का साहित्य व कला की ओर कुछ ज्यादा ही झुकाव होता है। ऐसे में अपने आस-पास से जो संस्कार मिले उसे उंचाई तक पहुंचाने के लिए रवींद्रनाथ से खूब साधना की। इसी का परिणाम था कि वे कवि के साथ ही साथ साहित्यकार, दार्शनिक, नाटककार, संगीतकार और चित्रकार के रूप में देश और दुनिया में जाने गए।
8 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी, 16 साल की उम्र में उन्होंने कहानियां और नाटक लिखना प्रारंभ कर दिया था। रवींद्रनाथ अपने माता-पिता की तेरहवीं संतान थे। उनके पिता का नाम देवेन्द्रनाथ टैगोर और मां का नाम शारदा देवी था। बचपन में उन्हें प्यार से 'रबी' बुलाया जाता था। स्कूली शिक्षा सेंट जेवियर स्कूल में पूरी करने के बाद बैरिस्टर बनने के सपने के साथ 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन में एक पब्लिक स्कूल में दाख़िला लिया। उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से क़ानून की पढ़ाई की लेकिन 1880 में बिना डिग्री लिए भारत लौट आए।
रविंद्रनाथ टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से ऊंचे स्थान पर रखते थे। गुरुदेव ने कहा था, "जब तक मैं जिंदा हूं मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूंगा।" टैगोर गांधी जी का बहुत सम्मान करते थे। लेकिन वे उनसे राष्ट्रीयता, देशभक्ति, सांस्कृतिक विचारों की अदला बदली, तर्कशक्ति जैसे विषयों पर अलग राय रखते थे। हर विषय में टैगोर का दृष्टिकोण परंपरावादी कम और तर्कसंगत ज़्यादा हुआ करता था, जिसका संबंध विश्व कल्याण से होता था। टैगोर ने ही गांधीजी को महात्मा की उपाधि दी थी।
विश्वविख्यात महाकाव्य गीतांजलि की रचना के लिये उन्हें 1913 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आपको बता दें कि साहित्य के क्षेत्र में नोबेल जीतने वाले वे अकेले भारतीय हैं।
भारत का राष्ट्रगान जन गण मन अधिनायक मूल रूप से बांग्ला भाषा में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखा गया था। इसके अलावा बांग्लादेश का राष्ट्रगान भी उन्हीं की कविता से लिया गया जिसमें बांग्लादेश का गुणगान है। कहा जाता है कि श्रीलंका के राष्ट्रगान का एक हिस्सा भी उनकी कविता से प्रेरित है। इस तरह तीन देशों के राष्ट्रगान में उनकी कविता की छाप है।
गुरुदेव रवींद्र नाथ एक मानवतावादी विचारक थे। उन्होंने साहित्य, संगीत, कला और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में अपनी अनूठी प्रतिभा का परिचय दिया। वो भारत ही नहीं एशिया के पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। बताया जाता है कि नोबेल पुरस्कार भी गुरुदेव ने सीधे स्वीकार नहीं किया था। उनकी ओर से ब्रिटेन के एक राजदूत ने ये पुरस्कार लेकर उन्हें सौंपा।उन्हें 1913 में उनकी कृति गीतांजलि के लिए नोबेल दिया गया था।