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सीजेआई ने बिहार की शराबबंदी को अदूरदर्शी कानून बताया, कहा- ऐसे कानूनों से अदालतों में केसों का ढेर लग जाता है

By विशाल कुमार | Updated: December 27, 2021 10:10 IST

सीजेआई) एनवी रमना ने कहा कि बिहार निषेध अधिनियम, 2016 की शुरूआत के परिणामस्वरूप हाईकोर्ट जमानत के आवेदनों से भरा हुआ था। इस वजह से एक साधारण जमानत अर्जी के निपटारे में एक साल का समय लग जाता है।

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ठळक मुद्देसीजेआई बिहार के शराबबंदी कानून को अदालतों में केसों का ढेर लगाने के लिए जिम्मेदार ठहराया।उन्होंने कहा कि विधायिका संसद की स्थायी समिति प्रणाली का पूरा उपयोग करने में सक्षम नहीं है।आम तौर पर कानूनों को पारित करने से पहले कोई प्रभाव मूल्यांकन या संवैधानिकता की बुनियादी जांच नहीं होती है।

नई दिल्ली: भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) एनवी रमना ने रविवार को बिहार में शराबबंदी जैसे कानूनों को अदालतों में केसों का ढेर लगाने के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि इसका कारण ऐसे कानून का मसौदा तैयार करने में दूरदर्शिता की कमी होती है।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, सीजेआई ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि विधायिका विधेयकों की जांच बढ़ाने के लिए संसद की स्थायी समिति प्रणाली का पूरा उपयोग करने में सक्षम नहीं है।

सीजेआई रमना ने विजयवाड़ा में सिद्धार्थ लॉ कॉलेज में 'भारतीय न्यायपालिका: भविष्य की चुनौतियां' पर 5वें स्वर्गीय श्री लवू वेंकटेश्वरलू एंडोमेंट व्याख्यान को संबोधित करते हुए कहा कि मुझे उम्मीद है कि यह बदलेगा, क्योंकि इस तरह की जांच से कानून की गुणवत्ता में सुधार होता है।

सुविचारित कानून की गैरमौजूदगी पर बोलते हुए सीजेआई ने कहा कि आम तौर पर कानूनों को पारित करने से पहले कोई प्रभाव मूल्यांकन या संवैधानिकता की बुनियादी जांच नहीं होती है।

उन्होंने कहा कि कानून बनाने में दूरदर्शिता की कमी का परिणाम सीधे तौर पर अदालतों के कामकाज रोकने के रूप में सामने आ सकता है। उदाहरण के लिए, बिहार निषेध अधिनियम, 2016 की शुरूआत के परिणामस्वरूप हाईकोर्ट जमानत के आवेदनों से भरा हुआ था। इस वजह से एक साधारण जमानत अर्जी के निपटारे में एक साल का समय लग जाता है।

कानून बनाने में बहस के महत्व पर प्रकाश डालते हुए सीजेआई ने कहा कि बिना ठोस विचार के लागू कानून मुकदमेबाजी की ओर ले जाते हैं। एक प्रस्तावित कानून को केवल सभी हितधारकों की भागीदारी और सार्थक बहस के माध्यम से ही सही किया जा सकता है। संसद ने 1990 के दशक में स्थायी समितियों के बिलों की जांच को बढ़ाने के लिए एक उल्लेखनीय तंत्र की शुरुआत की। हालांकि, ऐसा प्रतीत होता है कि विधायिका समिति प्रणाली का अधिकतम उपयोग करने में सक्षम नहीं है।

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