प्रशांत किशोर बिहार में बनना चाहते हैं केजरीवाल, रणनीति बनाने में मशगूल, क्या सियासत में नया कर सकेंगे!
By एस पी सिन्हा | Published: May 3, 2022 05:28 PM2022-05-03T17:28:16+5:302022-05-03T17:29:34+5:30
बिहार में सियासत करना.जानकारों के अनुसार अरविंद केजरीवाल को दिल्ली में मिली कामयाबी का कारण अलग रहा है. लेकिन बिहार के सियासत में भूचाल लाने के लिए जेपी आंदोलन की तर्ज पर नई परिभाषा तैयार करनी होगी.
पटनाः चुनावी रणनीतिकार से राजनीति में कदम रखने जा रहे प्रशांत किशोर (पीके) बिहार में अरविंद केजरीवाल बनना चाहते हैं. लेकिन बिहार में अरविंद केजरीवाल बनना आसान काम नहीं है. ऐसे में पीके की महत्वाकांक्षा कहीं धाराशायी ना हो जाये. ऐसा अनुमान लगाया जाने लगा है.
जानकारों का मानना है कि बिहार में सियासत करना कोई खेल बात नहीं है. दिल्ली की सियासत से ज्याद कठिन है बिहार में सियासत करना.जानकारों के अनुसार अरविंद केजरीवाल को दिल्ली में मिली कामयाबी का कारण अलग रहा है. लेकिन बिहार के सियासत में भूचाल लाने के लिए जेपी आंदोलन की तर्ज पर नई परिभाषा तैयार करनी होगी.
जेपी आंदोलन से हुआ सत्ता परिवर्तन हो या केजरीवाल की कामयाबी दोनों की बुनियाद अलग-अलग बातें थी. लेकिन जाति-धर्म की गहरी पैठ बनाये बिहार की सियासत में पीके के लिए रास्ता आसन नहीं है. राजनीतिक पंडितों का कहना है कि जेपी ने 5 जून 1974 को सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया था. तब पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में 5 लाख लोग जुटे थे.
सम्पूर्ण क्रांति में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक. वहीं दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की आयकर विभाग से नौकरी छोड़ने के बाद आरटीआई एक्टीविस्ट के तौर पर देश- दुनिया में पहचान बनी थी. इसके बाद वह अन्ना हजारे के जन लोकपाल आंदोलन से चमके.
फिर दिल्ली के सियासत जातीय गोलबंदी की कोई बात भी नहीं है. लेकिन बिहार में जातीय गोलबंदी के साथ-साथ जमीनी हकीकत को भी समझना जरूरी माना जाता है. उल्लेखनीय है कि पीके की अपने गृह प्रदेश बिहार को लेकर सियासी महत्वाकांक्षा पहले भी सामने आती रही है.
जब तक वह नीतीश कुमार के रणनीतिकार और परामर्शी रहे, उस दौरान संवाद के दौरान जदयू के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने भी इसे महसूस किया. इसके बाद जदयू में यह धारणा बनने लगी थी कि वह नीतीश कुमार का उत्तराधिकारी बनना चाहते हैं. दो साल पहले जदयू से उन्हें निकाल बाहर कर दिया गया.
बता दें कि पीके ने भाजपा, जदूय, कांग्रेस, तृलमूल कांग्रेस, द्रमुक आदि के लिए अलग-अलग समयों में बतौर चुनावी रणनीतिकार काम किया. कुछ जगहों पर कामयाबी का सेहरा भी उनके सिर बंधा, पर कहीं-कहीं उन्हें औंधे मुंह गिरना भी पड़ा. इसतरह से उनकी पहचान मूलत: पेशेवर रणनीतिकार की ही रही है.
अब बिहार की सियासत में वह अपना पैर जमाना चाहते हैं. लेकिन बिहार में समाजवादी आंदोलन की जडें काफी गहरी रही हैं. सियासी दलों के आज के प्रमुख चेहरे जेपी आंदोलन की उपज हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद कट्टर समाजवादी रहे हैं. ऐसे में बिहार के हालात भी आज ऐसे नहीं हैं कि यहां किसी सुराज अभियान को कामयाबी मिले.
इसतरह से बिहार की जटिल सामाजिक संरचना और समाजवादी बुनियाद पीके के लिए सबसे बडी चुनौती होगी. फिर अरविंद केजरीवाल बनने का उनका सपना चकनाचूर भी हो जा सकता है. ऐसे में अब सबकी निगाहें उनके अगले कदम पर टिकी हुई है. वह चार या पांच मई को अपनी अगली रणनीति का खुलासा करने वाले हैं. फिलहाल वह चिंतन में डूबे हुए हैं.